स्कूल से लौटते हुए उस रोज मेरा मन इतना बेचैन था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था. बेचैनी इतनी ज्यादा थी कि सोचा साथियो से साझा करुँगी तो शायद कुछ कम होगी लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ. वो दिन बीते आज महीनों बीत चुके हैं लेकिन अब तक वह बेचैनी जस की तस है. हाँ, इस बीच उस बेचैनी में कुछ नए आयाम जुड़े जरूर हैं. उस रोज जो हुआ वो कुछ भी अनोखा नहीं था, रोज जैसा ही था फिर भी बेचैनी क्यों हुई इस कदर.
वाकया कुछ यूँ है कि उस रोज मैं एक ऐसे स्कूल से लौट रही थी जहाँ मैं पहले भी चार-पांच बार जा चुकी थी. स्कूल के लगभग सभी 22 बच्चे मुझे और मैं उन्हें नाम से जानने लगे थे. हममें दोस्ती हो चुकी थी. पक्की वाली दोस्ती. मैं उन्हें कहानियां सुनाती, बदले में वो भी मुझे कहानियां सुनाते. बातें करते. उस रोज कक्षा 5 में कुछ समय बिताया. कक्षा 5 में 9 बच्चे हैं. सभी बच्चे पोटली की किताबें पढ़ते हैं, पोटली लाइब्रेरी का रजिस्टर बच्चे ही मेनटेन करते हैं. वो कहानियों को सिर्फ पढ़ते नहीं समझकर पढ़ते हैं और उस पर बातचीत भी करते हैं. उस रोज उन पढ़ी हुई कहानियों में उन्हें क्या अच्छा लगा इस पर लिखने वाला खेल हमने खेला. अनुभव यह है कि इस तरह अपनी मर्जी से लिखने को कहने पर बच्चों को अच्छा लगता है, खासकर तब जबकि उन्हें पता हो कि उनके लिखे को जांचा नहीं जायेगा. सभी बच्चों ने लिखना शुरू किया. फिर एक-एक कर बच्चों ने अपना लिखा हुआ पढ़ना शुरू किया. कक्षा के 3 बच्चे भुवन, सोमाली और रूद्र कॉपी से सर नहीं उठा रहे थे. ऐसा मालूम हो रहा था कि वो बहुत गंभीर होकर कुछ लिख रहे हैं. जब सारे बच्चों ने अपना लिखा पढ़कर सुना दिया तब भी ये 3 बच्चे कॉपी में ही सर घुसाए बैठे थे. मैंने प्यार से पूछा, जितना लिखा है उतना ही दिखा दो...तो उनके पास बैठे बच्चों ने कहा इनो लिखना नहीं आता मैडम. ऐसा कहने वाले बच्चे के चेहरे पर उपहास का हल्का भाव था, उन बच्चों ने सर और कॉपी में छुपा लिया. मैंने मैडम की ओर देखा. मैडम ने बहुत सहजता के साथ कहा, ‘इनको नहीं आता.’ ऐसी सहजता और वो उपहास मिलकर मुझे बेचैन करने के लिए काफी थे. लेकिन इससे ज्यादा मुझे फ़िक्र थी उन बच्चों की कि उन्हें कैसा महसूस हो रहा होगा. उन्हें सहज करने के इरादे से मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं, नहीं आता लिखना तो तुम ऐसे ही बताओ तुमने जो कहानी पढ़ी वो तुम्हें कैसी लगी.’ बच्चे खड़े तो गए लेकिन बोले कुछ नहीं. उनके हाथ में किताब थी लेकिन वो चुप थे. थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, ‘मैडम हमें पढ़ना भी नहीं आता.’
मेरे लिए यह समझना मुश्किल था कि इन बच्चों को अपना नाम तक लिखना नहीं आता था और न ही वे किताब का शीर्षक पढ़ पा रहे थे. जबकि अपनी पिछली 5 स्कूल विज़िट के दौरान मैंने इन बच्चों को काफी सक्रिय और सीखने को उत्सुक पाया था. ये हर गतिविधि में बराबर शरीक होते थे खासकर भुवन. वो तो क्लास का मॉनिटर भी है. मैंने उसे किताबें पढ़ते हुए भी देखा है और एक बार तो उसने किताब को पलटते हुए पूरी कहानी भी सुनाई थी. मैंने जब पूछा कि ‘तुम तो उस दिन कहानी सुना रहे थे न किताब से,’ तो भुवन ने इत्मिनान से कहा ‘वो तो मैं साथ वाले बच्चों को पढ़ते हुए सुनता हूँ तो समझ जाता हूँ कि किस पेज पर किस जगह क्या लिखा है इसलिए.’ अब भुवन मुस्कुरा रहा था. उसने और बाकी दोनों बच्चों ने, कक्षा के बाकी बच्चों ने और शिक्षकों ने यह मान लिया है कि ये तीनों पढ़ना लिखना नहीं सीख सकते. मैडम का कहना था कि ‘कुछ बच्चे नहीं ही सीख सकते, ये वही बच्चे हैं. सारे बच्चे सीख जाएँ जरूरी तो नहीं है न?’ ऐसा मैडम मुझसे कह रही थीं या खुद से पता नहीं लेकिन मैं परेशान थी यह सोचकर कि जो बच्चा दोस्त को पढ़ते देखकर यह समझ जाता है कि किस पेज पर क्या लिखा है वो खुद क्यों पढना लिखना सीख पा रहा है. ये बच्चे अनुपस्थित रहने वाले बच्चे भी नहीं हैं. भुवन की बड़ी-बड़ी आँखे और मुस्कुराकर आत्मविश्वास के साथ कहना कि ,’मैडम हमको पढ़ना भी नहीं आता, लिखना भी नहीं आता’ जैसे आत्मा को घायल कर रहा था. उसे स्कूल की व्यवस्था ने यह अच्छे से समझा दिया था कि कुछ बच्चे नहीं ही सीख पाते हैं और वो उन बच्चों में से हैं. सच कह रही हूँ महीनों बाद भी यह सब लिखते हुए भुवन की आँखें मेरे सामने हैं. ये हर उस बच्चे की आँखें हैं जो पढ़ना लिखना सीख पाने से दूर हैं, जो शिक्षा की रेल में एक अलग डिब्बे में सफर कर रहे हैं, कहीं भी कभी भी उतर जायेंगे. कोई कक्षा 3 के बाद कोई 4 के बाद कोई 5 के बाद. व्यवस्था भी इनके यूँ उतर जाने से बेचैन नहीं है क्योंकि ये बच्चे आंकड़े बिगाड़ते हैं. उसी स्कूल में भुवन ने कक्षा 1 में दाखिला लिया था. आज उसी स्कूल से कक्षा 5 पास करके जाने वाला है बिना लिखना पढ़ना सीखे. हालाँकि कि लिखने-पढने से इतर भुवन हिसाब का पक्का है, हर काम ठीक से करता है, नाटक, कविता, कहानी सबमें शामिल होता है.
अजीब मन मिला है कि हमेशा ही हार गये, पिछड़ गए, हाशिये पर छूट गए लोगों के करीब जाकर बैठ जाता है. मैंने क्या किया, कितना कर पायी और आज भुवन कुछ महीनों में अपना नाम और दोस्तों का नाम लिखने लगा है की यात्रा पर बात करना बेमानी है क्योंकि सवाल तो इससे काफी बड़ा है. ठीक इसी वक़्त मुझे राजस्थान के एक साथी द्वारा सुनाया गया ऐसा ही अनुभव याद आता है. बच्चे का नाम दिलखुश था, खूब शैतान इतना कि कक्षा में किसी को पढने लिखने न दे, सब सामान बिखेर दे, झगड़ा करे सबसे और पढ़े लिखे बिलकुल न. शिक्षक बार-बार उसके अभिभावकों को बुलाकर कुछ कहें तो अभिभावक भी उसे ही पीटना शुरू कर दें कि घर पर भी यही करता था वो. फिर कुछ महीनों तक जब फाउंडेशन की साथी ने उसके साथ काम किया तो पाया कि बच्चे का दिमाग बहुत तेज़ है और गणित में तो वो बेमिसाल है. फिर अल्मोड़ा की वो बच्ची याद आ गयी जो नीरू मैडम का पल्ला-पकडे पकड़े घूमती थी और किसी से बात नहीं करती थी, उसे भी पढने लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. फिर एक और बच्चा दिनेशपुर का याद आया जिसका स्कूल में आना व्यवस्था को खराब करने जैसा होता था. सिर्फ झगड़ा और गाली गलौज करना ही उसका काम था. वो पढता भी नहीं था और पढ़ना चाहता भी नहीं था इसलिए बाकि बच्चों की कॉपी फाड़ता था पेन्सिल छुपा देता था. बाद में उस बच्चे के शिक्षक ने पाया कि उस बच्चे को भूख भर खुराक ही नहीं मिल रही है न घर पर न स्कूल में. उसकी भूख अन्य बच्चों से ज्यादा थी और खाना उसे सबके बराबर मिलता था. फिर एक एक कर न जाने कितने उदाहरण आँखों के सामने तैरने लगे. एक बच्ची जिसे दीखता कम था, एक जिसकी माँ की मृत्यु हो गयी थी, एक जिसके पिता रोज माँ को शराब पीकर पीटते थे, एक जिसका भाई उसकी किताबें फाड़ देता था.
ये सब बच्चे स्कूल जाकर भी सीख नहीं पा रहे थे. दिक्कत तलब यह कि एक व्यवस्था के तहत यह मान लिया गया था कि ये कुछ बच्चे होते ही ऐसे हैं जो सीख नहीं पाते. या स्कूलों में इतना कम शिक्षक स्टाफ है और ऐसे हालात हैं कि अलग से इन बच्चों पर काम करने की सोचना भी मुश्किल है. तर्क सही हो सकते हैं, शायद होंगे भी, आंकड़ों में दर्ज सत्तर या अस्सी प्रतिशत बच्चों के सीख जाने से संतुष्ट भी हो लेंगे लेकिन वो आँखें पीछा करती रहेंगी जो सीखने की इच्छा से स्कूल में दाखिल हुई थीं.
सरकारी स्कूलों में जो बच्चे आते हैं व्यवस्था को उनके और उनके परिवेश के प्रति संवेदनशील होना कितना जरूरी है यह बात समझ में आती है. किसी भी तरह के सीखने की शुरुआत उसी संवेदना के बिंदु से होती है जहाँ सीखने की इच्छा और सिखाने में स्नेह का मिलन होता है. अपने ही एक साथी की कही बात मुझे किसी भी तरह के सीखने-सिखाने को लेकर बताया गया मन्त्र लगता है कि पहले बच्चों के सर पर हाथ रखो प्यार से, उनकी आँखों में देखो तो सही कितने सपने हैं वहां, उनसे दोस्ती तो करो फिर आ जायेया लिखना भी पढ़ना भी. सोचती हूँ कि शिक्षा का इतना बड़ा तन्त्र ऐसी भावुक बातों से तो नहीं चलने वाला तो पाती हूँ कि हमारे शिक्षा के दस्तावेजों में भी इस संवेदना की पूरी स्पेस है. यूँ ही नहीं सभी के लिए न्यायोचित शिक्षा, बच्चे पर केन्द्रित उसकी जरूरत पर आधारित शिक्षा, सीखने की प्रक्रिया में हर बच्चे की प्रतिभागिता की बात कही गयी होगी. चाहे नेशनल एजुकेशन पॉलिसी हो या एनसीएफ 2005 या नेशनल करिकुलम फॉर एलीमेंटरी एंड सेकेंडरी एजुकेशन. अभी हाल ही में, 2005 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ) ने एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया है, जिसमें सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण समावेशी शिक्षा प्रदान करने के तरीके शामिल किए गए हैं। वह शिक्षकों द्वारा निम्नलिखित कामों को करने की जरूरत को स्पष्ट करती है:
· हर बच्चे की अनोखी जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना
· बच्चे पर केंद्रित, सामाजिक रूप से प्रासंगिक और न्यायोचित पढ़ाने/सीखने की प्रक्रिया प्रदान करना
· उनके सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में विविधता को समझना।
यानि मामला सिर्फ भावुक होने का नहीं है उस मर्म को समझने का है जहाँ ये बातें सिर्फ दस्तावेजों में दर्ज होकर न रह जाएँ कक्षा में हर बच्चे के जीवन से संवेदना के धरातल पर जुड़ सकें. बच्चों की जरूरतों को समझे बिना, उनके और उनके परिवेश को समझे बिना, उसके प्रति सम्मान का भाव लाये बिना इसे अमल में लाना मुश्किल है.
इसलिए जब कोई शिक्षक यह कहते हैं कि इन बच्चों के अभिभावक इन पर ध्यान नहीं देते, तो मुझे ‘इन बच्चों’ से और प्यार हो जाता है. और मैं शिक्षक साथियों से कहती कि सबका सीखना जरूरी है क्योंकि सीखना हक है सबका. ठीक उसी तरह जैसे जीवन पर हक है सबका. इसकी शुरुआत की पहली पैडागौजी है कक्षा में आये हर बच्चे से मन का रिश्ता बना पाना, उनका सम्मान करना और अपनी प्रक्रियाओं में थोड़ा अतिरिक्त चौकन्नापन शामिल करना कि कहीं कोई छूट तो नहीं रहा...
Very good and interesting matter , about your broad range of job and its understanding to the bottom line up to the every child and his/her learning process and learning outcome.
ReplyDeleteThe question is that , in modern sense we think as the every child is equal and he /she should have to receive knowledge equally .
Differentiation is the law of nature .
No one in this world be equally treated n put its outcome equally too.
Many factors behind that , from the social to genetical , a vast number of cases behind those hindrances.
That's why when a teacher involving to teach every students , one by one , try hard , but the outcome result is not satisfactory.
Five fingers of the hand is not equal.
Thanks . For the good material, and your vast experience to read me .