ऑनलाइन सेमिनार: प्रतिभा कटियार एवं रेखा चमोली के साथ*********************
-मनोहर चमोली ‘मनु’
आज की बातचीत की औपचारिक शुरूआत अशोक प्रसाद जी एवं जगमोहन कठैत जी ने की । जैसे-जैसे साथी जुड़ते रहे, साथी सभी का स्वागत करते रहे। आरम्भ से पहले ही 64 साथी जुड़ गए थे। श्वेता जी ने सन्दर्भ रखा। कहा, ''दैनिक जीवन में पढ़ने-लिखने की आदत को विकसित करने और बच्चों में कैसे पढ़ने की आदत विकसित करें? इस पर बात करेंगे। पढ़े लिखे शिक्षक और पढ़ते-लिखते शिक्षक दोनों की आवश्यकता है।''
दोनों के परिचय के बाद प्रतिभा जी हमारे सामने आई। प्रतिभा जी ने कहा,‘‘यह माध्यम हमें एक अवसर के साथ मिला है कि हमारे भीतर सीखने की ललक रहे। मैं आज भी बहुत कुछ सीखकर जाऊँगी। पढ़ना क्यों जरूरी है? जब इस सवाल को साझा करती हूं तो पता चलता है कि जवाब ऐसे आता है। पढ़ा है। पर ज़रूरी तो नहीं कि साहित्य सभी पढ़ें। हर दिन लगता है कि क्या पढ़ना है? कैसे पढ़ना है? सालों से पढ़ रहे हैं पर क्या हमें पता है कि हमें कैसे पढ़ना है? यह भी क्या हमें सुनना आता है? क्या हम अच्छे पाठक हैं? जब मैं अठारह-उन्नीस साल की थी तब शेखर एक जीवनी पढ़ा। अब दोबारा पढ़ रही हूं तो लगता है कि जाने हुए को और जानना है। फिर से पढ़ना लगता है कि नए तरीके से पढ़ना हो रहा है। मैं जो सोचती हूँ क्या मैं लिख पाती हूं। आजकल हम देख रहे हैं कि हम खूब मदद करते हैं। कृपा, मदद खूब हो रही है। क्या हैं ये शब्द। साहित्य को बरतना ज़रूरी है। मदद करना,कृपा करना होना चाहिए कि साथ में खड़ा होना चाहिए? मैं फिर कह रही हूं कि क्या हम पढ़ना जानते हैं। मैं तो पढ़ना सीख रही हूं। हम सबके भीतर एक नदी है। साहित्य हमें सूखने नहीं देता। साहित्य हमारे भीतर के जंगल को,हरे-भरे को सूखने नहीं देता। हमें मरने नहीं देता। साहित्य जो करता है, प्रकृति जो करती है शिक्षा जो करती है उनका स्वभाव क्या है? पूरी दुनिया का साहित्य क्या करता है? सबके लिए है न? कोरोना के समय में पूरी दुनिया इस बीमारी से लड़ रही है। पूरी दुनिया एक हो गई है। साहित्य भी भेद नहीं करता।''
-मनोहर चमोली ‘मनु’
आज की बातचीत की औपचारिक शुरूआत अशोक प्रसाद जी एवं जगमोहन कठैत जी ने की । जैसे-जैसे साथी जुड़ते रहे, साथी सभी का स्वागत करते रहे। आरम्भ से पहले ही 64 साथी जुड़ गए थे। श्वेता जी ने सन्दर्भ रखा। कहा, ''दैनिक जीवन में पढ़ने-लिखने की आदत को विकसित करने और बच्चों में कैसे पढ़ने की आदत विकसित करें? इस पर बात करेंगे। पढ़े लिखे शिक्षक और पढ़ते-लिखते शिक्षक दोनों की आवश्यकता है।''
दोनों के परिचय के बाद प्रतिभा जी हमारे सामने आई। प्रतिभा जी ने कहा,‘‘यह माध्यम हमें एक अवसर के साथ मिला है कि हमारे भीतर सीखने की ललक रहे। मैं आज भी बहुत कुछ सीखकर जाऊँगी। पढ़ना क्यों जरूरी है? जब इस सवाल को साझा करती हूं तो पता चलता है कि जवाब ऐसे आता है। पढ़ा है। पर ज़रूरी तो नहीं कि साहित्य सभी पढ़ें। हर दिन लगता है कि क्या पढ़ना है? कैसे पढ़ना है? सालों से पढ़ रहे हैं पर क्या हमें पता है कि हमें कैसे पढ़ना है? यह भी क्या हमें सुनना आता है? क्या हम अच्छे पाठक हैं? जब मैं अठारह-उन्नीस साल की थी तब शेखर एक जीवनी पढ़ा। अब दोबारा पढ़ रही हूं तो लगता है कि जाने हुए को और जानना है। फिर से पढ़ना लगता है कि नए तरीके से पढ़ना हो रहा है। मैं जो सोचती हूँ क्या मैं लिख पाती हूं। आजकल हम देख रहे हैं कि हम खूब मदद करते हैं। कृपा, मदद खूब हो रही है। क्या हैं ये शब्द। साहित्य को बरतना ज़रूरी है। मदद करना,कृपा करना होना चाहिए कि साथ में खड़ा होना चाहिए? मैं फिर कह रही हूं कि क्या हम पढ़ना जानते हैं। मैं तो पढ़ना सीख रही हूं। हम सबके भीतर एक नदी है। साहित्य हमें सूखने नहीं देता। साहित्य हमारे भीतर के जंगल को,हरे-भरे को सूखने नहीं देता। हमें मरने नहीं देता। साहित्य जो करता है, प्रकृति जो करती है शिक्षा जो करती है उनका स्वभाव क्या है? पूरी दुनिया का साहित्य क्या करता है? सबके लिए है न? कोरोना के समय में पूरी दुनिया इस बीमारी से लड़ रही है। पूरी दुनिया एक हो गई है। साहित्य भी भेद नहीं करता।''
कवयित्री प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘हम मनुष्य होंगे। समाज को क्या चाहिए? साहित्य और शिक्षा क्या करती है। शिक्षक खास है। वह सबको जोड़ता है। पढ़ने की आदत कैसे हो? हमें समझना होगा कि जहां मज़ा आता है तो क्यों? नहीं आता है तो क्यों? मुझे घर में पढ़ने की आदत मिली। जिन्हें घर से यह आदत नहीं मिली उन्हें हाथ बढ़ाना पड़ता है। यह स्वाद है। लत है। चस्का है। यदि इसकी शुरुआत हो जाए तो फिर छूटेगी। हमें यह आदत नहीं मिली तो हम बच्चों को यह आदत तैयार कर सकते हैं। ऐसे में शिक्षक की बड़ी जिम्मेदारी है। वह इसे करते हैं। कर सकते हैं।’’ प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘मैं बचपन को याद करती हूँ तो पाती हूं कि पापा बहस कराते थे। सवाल करने और जूझने की आदत बढ़ाई उन्होंने। क्या हम बच्चों के साथ कर सकते हैं। बच्चों से बात करें। बहस में शामिल हों। बच्चों से सवाल-जवाब करने चाहिए। हमें बच्चे गलत साबित करते हैं तो समझिए कि वे सही जा रहे हैं। घर में बच्चे जब टोकते हैं तो समझिए कि सही जा रहा है। यही तो चाहते हैं हम। घर में भी और स्कूल में भी। हिन्दी की किताबें देखें तो वह बहुत खूबसूरत हैं। भाषा की किताबों के सारे पाठ इतने खास हैं। यदि इसे ही बरत लें,सहेज लें तो बात बने। शिक्षक को ही यदि किताबों से प्रेम नहीं है तो कैसी विरासत बना रहे होंगे हम? क्या स्कूल में बच्चे संवाद करते हैं? सवाल उठाते हैं? मैंने साहित्य में ज़्यादा पढ़ाई नहीं की। पीजी के समय में मैंने देखा कि साहित्य को पढ़ाने वाले शिक्षक मुझे रुला देते थे। ऐसे साहित्य पढ़ा जाता है? पढ़ाया जाता है? एक शिक्षक के पास कितने बच्चे आते हैं। वे बच्चे यदि मनुष्य हो जाएं तो दुनिया कितनी खूबसूरत हो जाए। मैं कक्षा 4 में पढ़ती थी। पुस्तकालय में एक किताब मिली। सार यह है कि नक्सली मूवमेंट में युवक पड़ गया। पकड़ा जाना और पुलिस की कार्रवाई में 5 साल निकल गए। मैंने इसे पढ़ा। कैसे किताब हमारे जीवन को बदलती है? साहित्य हमें नज़रिया देता है। परखने का अवसर देता है। चित्रलेखा पढ़ी। जिन शिक्षकों को साहित्य से प्रेम है उनकी कक्षाओं में कुछ अलग होता है। यू ंतो सभी शिक्षक अपनी कक्षाओं में कुछ न कुछ होता है। शिक्षक का व्यवहार कक्षाओं में जाएगा। बच्चों के जीवन में जाएगा।''
प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘शिक्षक होना, बच्चों से प्यार करना। बच्चों को सवालों को तैयार करना अपने आप में अनूठा है।’’ पांच बजकर दस मिनट पर रेखा चमोली जी ने अपनी बात शुरू की। रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘प्रतिभा को सुनना लंबी प्रेम कविता को सुनना जैसा है। प्रतिभा जी से सहमति ज़ाहिर करते हुए मैं यह कहना चाहती हूँ कि यह मेरी ही बात है। मैं जानती हूं कि जो इस संवाद में शामिल हैं वह भी अपनी कक्षा में खूब बेहतर काम कर रहे हैं। शिक्षकों के पढ़ने-लिखने की बात पर बात आगे बढ़ाते हैं। मुझे लगता है कि हर व्यवसाय में कुछ खास होता है। शिक्षा में भी किताबें ज़रूरी हैं। हमें किताबें एक औजार के तौर पर दिखाई देती हैं। विषयवार शिक्षक और विषय की किताबों से नहीं पूरी प्रक्रिया में हमें बच्चों के सारे पढ़ाई के दिनों के तौर पर देखना होगा। जैसे जिस शिक्षक ने तोत्तोचान पढ़ी होगी। वह किसी भी तरह का शिक्षक है किसी भी विषय का शिक्षक है। वह बच्चों की उलझनों को समझेगा। पहला अध्यापक किताब भी शिक्षक के व्यवहार को दिखाती है। किताबें सवालों को सुनने-समझने का माध्यम बनती हैं। किताबों और किताबों में निहित शिक्षा प्रणाली के बारे में हम सही-गलत पर सवाल किए जा सकते हैं। मतलब यह है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है। जो भी गड़बड़ हो रही है हमारी कक्षाओं में कुछ गड़बड़ है। देखा जाए तो अब तो नियमित कक्षाएं चल रही हैं। यदि कोई शिक्षक किताबें पढ़ता है तो उसके भीतर का मनुष्य सवाल करता है। हां या नहीं वाला नहीं होता। शिक्षक का पढ़ना जरूरी है। व्हाट्स एप या फेसबुक में चीजें जो आ रही हैं। जिसे एक तरह से पढ़ना माना जाए तो क्या हम उस पर सवाल करते हैं। सही-गलत पर विचार करते हैं? हम फाॅरवर्ड कर देते हैं। यदि हमने किताबें पढ़ी हुई होती तो शायद हम सोचते। क्या करना है क्या नहीं करना चाहिए। हमें पढ़ना चाहिए। देर से ही सही पर पढ़े। यदि हम शिक्षक हैं। पढ़ते-लिखते शिक्षक है तो हमारी कक्षा कैसी होगी। मुझे लगता है कि ऐसे शिक्षक के पूर्वाग्रह नहीं होंगे। मैं अपना उदाहरण देती हूं। अपने-अपने राम। ये भगवान सिंह जी किताब है। बचपन में पढ़ी थी। मुझे वह तर्कपूर्ण किताब लगी। पाठकों का नजरिया बदल देती है किताब। आप जो पढ़ने से पहले होते हैं पढ़ने के बाद बदलते हैं। शिद्दत से पढ़ाने वाला शिक्षक संकोची नहीं होता। उसकी कक्षा में वह निडरता से पढ़ा रहा होता है। वह सवालों का जवाब देता है। घर में यदि बच्चों को माहौल मिलता है तो असर होता ही है। हमारे स्कूलों में जो भी बच्चे आ रहे हैं उनके पास घर में पढ़ने के लिए स्कूली किताबों से इतर बहुत कुछ नहीं होता। छपी हुई चीज़ों से वे दूर हैं। ऐसे माहौल में हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। उन बच्चों को खुद से पढ़ने के लिए तैयार करने के लिए किताबें चाहिए। जिन बच्चों को पढ़ने के लिए किताबें मिलती हैं तो उन्हें घर में अलग से पढ़ाना सिखाना नहीं करता। हम शिक्षक कक्षा में चित्रों में बात कर रहे होते हैं। घरेलू बातें होंगी। घर जैसी बातें होंगी।’’
रेखा चमोली ने कहा,‘‘एक ओर हम कहते हैं कि बच्चे रुपए लेकर नहीं आने हैं। एक बच्ची के बैग में दस रुपए निकलते हैं। बच्चों को सुना जाता है तो पता चलता है कि बच्ची घर के लिए 10 रुपए की चीनी लेकर जाएगी। जब यह पता चलता है तो कितनी बातें,अनुभव मिलते हैं। एक शिक्षक की बात और एक बच्ची की बात दोनों महत्वपूर्ण है। इसी तरह जब हम किसी कक्षा में कुछ पढ़ा रहे होते हैं तो हम सिर्फ भाषण नहीं होता। कहानी नहीं होता। कहानी के चित्रों,चरित्रों पर बात होती है। हमारे व्यवहार करने पर भी बहुत सारे मूल्य स्वतः आ जाते हैं।’’
रेखा चमोली जी ने छःह साल की छोकरी कविता पर खूब बात की। बहुत सारी सामग्री यानि छपी सामग्री जब बच्चों को पढ़ने के लिए दी जाती है तो बात आगे बढ़ती है। कक्षा के नियम होते हैं। पर यदि हम बच्चों से अच्छे बात करते हैं तो सामग्री बच्चे संभालते हैं। बच्चे अपने मन से चयन करते हैं। पढ़ते हैं। पढ़ने के मौके देते हैं। हम स्वयं भी पढ़ें। बच्चों को समय देना पड़ता है। बच्चे पढ़े हुए या सुने हुए पर बात करें। उन्हें मौका दिया जाना चाहिए। बच्चों का पढ़ा हुआ सुना जाए। वे खुश होते हैं। सुनना,बोलना और पढ़ना का अवसर देते हैं और हम बच्चों को लिखने के लिए प्रेरित करते हैं तो उसके लिखे हुए पर रुचि दिखाते हैं तो अलग बात है। बच्चों का रुझान बढ़ता है। प्रातःकालीन सभा में वह बोलते हैं तो बात ही अलग होती है। दीवार पत्रिका में उनके साथ शामिल होना बड़ी बात है। दीवार पर चिपकने के बाद नहीं। दीवार पत्रिका के शुरू होने,बनाने में तो वह प्रेरित करने वाला काम है। बच्चे मिलकर जो खोजते हैं,पढ़ते हैं लिखते हैं। यह बड़ा काम है। समझकर पढ़ना-लिखना आ गया तो बच्चे भूलते नहीं हैं। शिक्षक को भरोसा हो जाए कि वह सही दिशा में काम कर रहा होता है तो वह करता है। वह अपना काम करता रहता है।
5 बजकर 38 मिनट पर सवालों का सिलसिला आरम्भ हुआ। अशोक जी ने मुदित जी की सहायता से सवालों का समेकन किया। कक्षा कक्ष से जुड़े हुए सवालों से इतर भी सवाल आए। सवालों के जवाब में पहले रेखा जी ने कहा,‘‘यदि घर में बहुत सारी किताबें हैं तो बच्चों को पढ़ने के लिए कहा जा सकता है। बच्चों को प्रेरित किया जा सकता है। बच्चों के साथ पढ़ी जाएं तो बच्चे पढ़ते हैं। अभिभावक किताबें ले आएं। बच्चे खुद पढ़े। सहजता से हो। दबाव में नहीं पढ़ाया जा सकता। माहौल दें बस। पढ़ने-लिखने से तार्किकता का जो मामला है तो किताबें जगाती हैं। जब हम देखते,सुनते और समझते हैं। माना किसी गांव का उपन्यास पढ़ रहे हैं तो हमें गांव का जीवन,रहन-सहन समझ में आता है। किताबें हमारा भ्रम भी तोड़ती हैं। जब हम बहुत सारे संदर्भों को पढ़ते हैं तो एक ताना-बाना बुनते हैं। फिर हम किसी एक पक्ष पर ही अपनी समझ नहीं बनाते। हमारे अनुभव और दूसरो के अनुभव से हम अपना रास्ता खोजते हैं। सोचने का नया आयाम मिलता है। फिर हम किसी का कहा हुआ यूं ही नहीं मान लेते। हमारा सोचना और मानना बनता है।’’
अन्य सवाल के जवाब में रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘एक ही तरह का पढ़ना संकुचित बना सकता है। लेकिन एक ही विषय पर अलग-अलग किताबें पढ़ंे तो समझ विस्तारित हो सकती है। लेखन के लिए कोई सलाह क्या हो सकती है? जब भीतर से सलाह आती है कि अब लिखना ही है तो लिखना हमारे विचार,भावानाएं और दर्द सामने आते हैं। शिक्षक के तौर पर लिखना तो अलग है। हम अपने शिक्षण को लिखें। हमारी सोच और समस्याएं रेखांकित हो सकती है। वह काम आती हैं। मुझे लगता है कि बच्चों को उनकी उम्र और रुचि के हिसाब से किताबें देनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे चयन का अधिकार बच्चों को मिलना चाहिए। बच्चे बड़े की किताब भी पढ़ सकते हैं। पढ़ने की ललक पैदा हो चुकी है तो बड़ों की किताबें पढ़ी जा सकती हैं। पढ़ना-लिखना एकाकी प्रक्रिया भले ही है पर पढ़ने के बाद जब हम खुद में बदलाव महसूस होता है। हमारा पूरा बना हुआ इंसान जब सामने आता है तो समाज में हम जाते हैं तो हमारा व्यवहार बदला हुआ होगा। सकारात्मक होगा। फर्क तो आएगा ही। पढ़ते-लिखते हैं तो समाज के साथ व्यवहार में परिलक्षित होता है।’’
एक घण्टा पैंतीस मिनट के बाद भी आ रहे सवालों के जवाब देने की प्रक्रिया चलती रही। रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘शुरू में लेखन में पढ़े हुए से प्रभाव रहता है लेकिन जैसे-जैसे हम पढ़ते जाते हैं तो हमारे लेखन में स्वतंत्रता आती है। समूह में पढ़ने की बात करते हैं तो हम कक्षा में इसलिए भी करते हैं कि बच्चे जब समूह में पढ़ते हैं तो वे एक-दूसरे की मदद करते हैं। पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में कक्षा में छूना,देखना क्यों प्रतिबंधित है? यदि समूह में वे बच्चे काम करें तो उसकी बात ही कुछ ओर है। बच्चे दो में छोटे-छोट समूह में पढ़ सकते हैं। चीज़ें बनाते हैं। समूह में पढ़ने के कई तरीकों से वह तेजी से पढ़ना और पढ़कर अपनी बात सुनाने की गति तेजी से सीखते है। अभिभावकों की गलतफहमी है कि साहित्य बच्चों की कोर्स को बाधित करता है। साहित्य कहीं न कहीं बच्चों की समझ को बढ़ाता है। पाठ्यक्रम को सीखने-समझने और विस्तार देने में मदद ही करता है साहित्य। किसी भी बच्चे का जो व्यक्तित्व बनता है तो स्कूली किताबों से ही नहीं बनता। किताबों का महत्व नकारा नहीं जा सकता।’’
एक घण्टा बयालीस मिनट की बातचीत के बाद रेखा जी ने अपनी कक्षाओं के अनुभव भी साझा किए। सवालों के जवाब में रेखा जी ने कहा,‘‘एकांत में मौलिक लेखन नहीं होता। हम जो बोलते,सुनते,लिखते हैं वह समाज का ही हिस्सा होता है। किसी बात को अपने तरीके से लिखना शायद मौलिक है। मैं निडरता के साथ जो लिखती हूं वह मौलिक कहलाया जाएगा। बच्चों को जानवरों से प्यार होता है। बच्चे अपनी प्रकृति को जानते हैं। कल्पनाशीलता में खिलौनों से बात होती है। जमीन को चोट कैसे लगती है। बाल मनोविज्ञान कल्पना के घोड़े दौड़ाने को सही मानता है। बच्चों को साहित्य में भी वह सब देना चाहिए जो उसके समाज में है। डायरी में बच्चों की मात्र दिनचर्या कैसे बदली जाए? लगातार और धीरे-धीरे प्रयास किए जाएं तो डायरी में दिनचर्या के साथ भाव भी आएंगे। यह बड़ों के साथ भी होता है। निरन्तर अभ्यास से यह आएगा।
अंत में प्रतिभा जी कनेक्ट हुई। उन्होंने जोड़ा,‘‘यह बात सही है कि एक ही विचार का साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए। किसी के विरोध में या असहमति में जाने के लिए ज़्यादा पढ़ना होगा वह भी किसी पूर्वाग्रह के। हमें खुलेपन से चीज़ों को पढ़ना चाहिए। समझना चाहिए। हर तरह के साहित्य को पढ़ने से हम और खुलते हैं। माना कि मैं धर्म पर विश्वास नहीं करती तो मुझे समझना होगा कि मुझे धर्म की कितनी जानकारी है? तभी हम मुक्त होते हैं। किताबें अन्तिम नहीं होतीं। हम जीवन को भी तो पढ़ रहे होते हैं। हम सही साहित्य की ओर बढ़ते हैं हमारा जीवन भी तो है जिससे हम समझ रहे होते हैं।’’ 1 घण्टा 54 मिनट की बातचीत में अंत तक 94 साथी लगातार बने रहे। अंत में जगमोहन कठैत जी ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘शिक्षक होना, बच्चों से प्यार करना। बच्चों को सवालों को तैयार करना अपने आप में अनूठा है।’’ पांच बजकर दस मिनट पर रेखा चमोली जी ने अपनी बात शुरू की। रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘प्रतिभा को सुनना लंबी प्रेम कविता को सुनना जैसा है। प्रतिभा जी से सहमति ज़ाहिर करते हुए मैं यह कहना चाहती हूँ कि यह मेरी ही बात है। मैं जानती हूं कि जो इस संवाद में शामिल हैं वह भी अपनी कक्षा में खूब बेहतर काम कर रहे हैं। शिक्षकों के पढ़ने-लिखने की बात पर बात आगे बढ़ाते हैं। मुझे लगता है कि हर व्यवसाय में कुछ खास होता है। शिक्षा में भी किताबें ज़रूरी हैं। हमें किताबें एक औजार के तौर पर दिखाई देती हैं। विषयवार शिक्षक और विषय की किताबों से नहीं पूरी प्रक्रिया में हमें बच्चों के सारे पढ़ाई के दिनों के तौर पर देखना होगा। जैसे जिस शिक्षक ने तोत्तोचान पढ़ी होगी। वह किसी भी तरह का शिक्षक है किसी भी विषय का शिक्षक है। वह बच्चों की उलझनों को समझेगा। पहला अध्यापक किताब भी शिक्षक के व्यवहार को दिखाती है। किताबें सवालों को सुनने-समझने का माध्यम बनती हैं। किताबों और किताबों में निहित शिक्षा प्रणाली के बारे में हम सही-गलत पर सवाल किए जा सकते हैं। मतलब यह है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है। जो भी गड़बड़ हो रही है हमारी कक्षाओं में कुछ गड़बड़ है। देखा जाए तो अब तो नियमित कक्षाएं चल रही हैं। यदि कोई शिक्षक किताबें पढ़ता है तो उसके भीतर का मनुष्य सवाल करता है। हां या नहीं वाला नहीं होता। शिक्षक का पढ़ना जरूरी है। व्हाट्स एप या फेसबुक में चीजें जो आ रही हैं। जिसे एक तरह से पढ़ना माना जाए तो क्या हम उस पर सवाल करते हैं। सही-गलत पर विचार करते हैं? हम फाॅरवर्ड कर देते हैं। यदि हमने किताबें पढ़ी हुई होती तो शायद हम सोचते। क्या करना है क्या नहीं करना चाहिए। हमें पढ़ना चाहिए। देर से ही सही पर पढ़े। यदि हम शिक्षक हैं। पढ़ते-लिखते शिक्षक है तो हमारी कक्षा कैसी होगी। मुझे लगता है कि ऐसे शिक्षक के पूर्वाग्रह नहीं होंगे। मैं अपना उदाहरण देती हूं। अपने-अपने राम। ये भगवान सिंह जी किताब है। बचपन में पढ़ी थी। मुझे वह तर्कपूर्ण किताब लगी। पाठकों का नजरिया बदल देती है किताब। आप जो पढ़ने से पहले होते हैं पढ़ने के बाद बदलते हैं। शिद्दत से पढ़ाने वाला शिक्षक संकोची नहीं होता। उसकी कक्षा में वह निडरता से पढ़ा रहा होता है। वह सवालों का जवाब देता है। घर में यदि बच्चों को माहौल मिलता है तो असर होता ही है। हमारे स्कूलों में जो भी बच्चे आ रहे हैं उनके पास घर में पढ़ने के लिए स्कूली किताबों से इतर बहुत कुछ नहीं होता। छपी हुई चीज़ों से वे दूर हैं। ऐसे माहौल में हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। उन बच्चों को खुद से पढ़ने के लिए तैयार करने के लिए किताबें चाहिए। जिन बच्चों को पढ़ने के लिए किताबें मिलती हैं तो उन्हें घर में अलग से पढ़ाना सिखाना नहीं करता। हम शिक्षक कक्षा में चित्रों में बात कर रहे होते हैं। घरेलू बातें होंगी। घर जैसी बातें होंगी।’’
रेखा चमोली ने कहा,‘‘एक ओर हम कहते हैं कि बच्चे रुपए लेकर नहीं आने हैं। एक बच्ची के बैग में दस रुपए निकलते हैं। बच्चों को सुना जाता है तो पता चलता है कि बच्ची घर के लिए 10 रुपए की चीनी लेकर जाएगी। जब यह पता चलता है तो कितनी बातें,अनुभव मिलते हैं। एक शिक्षक की बात और एक बच्ची की बात दोनों महत्वपूर्ण है। इसी तरह जब हम किसी कक्षा में कुछ पढ़ा रहे होते हैं तो हम सिर्फ भाषण नहीं होता। कहानी नहीं होता। कहानी के चित्रों,चरित्रों पर बात होती है। हमारे व्यवहार करने पर भी बहुत सारे मूल्य स्वतः आ जाते हैं।’’
रेखा चमोली जी ने छःह साल की छोकरी कविता पर खूब बात की। बहुत सारी सामग्री यानि छपी सामग्री जब बच्चों को पढ़ने के लिए दी जाती है तो बात आगे बढ़ती है। कक्षा के नियम होते हैं। पर यदि हम बच्चों से अच्छे बात करते हैं तो सामग्री बच्चे संभालते हैं। बच्चे अपने मन से चयन करते हैं। पढ़ते हैं। पढ़ने के मौके देते हैं। हम स्वयं भी पढ़ें। बच्चों को समय देना पड़ता है। बच्चे पढ़े हुए या सुने हुए पर बात करें। उन्हें मौका दिया जाना चाहिए। बच्चों का पढ़ा हुआ सुना जाए। वे खुश होते हैं। सुनना,बोलना और पढ़ना का अवसर देते हैं और हम बच्चों को लिखने के लिए प्रेरित करते हैं तो उसके लिखे हुए पर रुचि दिखाते हैं तो अलग बात है। बच्चों का रुझान बढ़ता है। प्रातःकालीन सभा में वह बोलते हैं तो बात ही अलग होती है। दीवार पत्रिका में उनके साथ शामिल होना बड़ी बात है। दीवार पर चिपकने के बाद नहीं। दीवार पत्रिका के शुरू होने,बनाने में तो वह प्रेरित करने वाला काम है। बच्चे मिलकर जो खोजते हैं,पढ़ते हैं लिखते हैं। यह बड़ा काम है। समझकर पढ़ना-लिखना आ गया तो बच्चे भूलते नहीं हैं। शिक्षक को भरोसा हो जाए कि वह सही दिशा में काम कर रहा होता है तो वह करता है। वह अपना काम करता रहता है।
5 बजकर 38 मिनट पर सवालों का सिलसिला आरम्भ हुआ। अशोक जी ने मुदित जी की सहायता से सवालों का समेकन किया। कक्षा कक्ष से जुड़े हुए सवालों से इतर भी सवाल आए। सवालों के जवाब में पहले रेखा जी ने कहा,‘‘यदि घर में बहुत सारी किताबें हैं तो बच्चों को पढ़ने के लिए कहा जा सकता है। बच्चों को प्रेरित किया जा सकता है। बच्चों के साथ पढ़ी जाएं तो बच्चे पढ़ते हैं। अभिभावक किताबें ले आएं। बच्चे खुद पढ़े। सहजता से हो। दबाव में नहीं पढ़ाया जा सकता। माहौल दें बस। पढ़ने-लिखने से तार्किकता का जो मामला है तो किताबें जगाती हैं। जब हम देखते,सुनते और समझते हैं। माना किसी गांव का उपन्यास पढ़ रहे हैं तो हमें गांव का जीवन,रहन-सहन समझ में आता है। किताबें हमारा भ्रम भी तोड़ती हैं। जब हम बहुत सारे संदर्भों को पढ़ते हैं तो एक ताना-बाना बुनते हैं। फिर हम किसी एक पक्ष पर ही अपनी समझ नहीं बनाते। हमारे अनुभव और दूसरो के अनुभव से हम अपना रास्ता खोजते हैं। सोचने का नया आयाम मिलता है। फिर हम किसी का कहा हुआ यूं ही नहीं मान लेते। हमारा सोचना और मानना बनता है।’’
अन्य सवाल के जवाब में रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘एक ही तरह का पढ़ना संकुचित बना सकता है। लेकिन एक ही विषय पर अलग-अलग किताबें पढ़ंे तो समझ विस्तारित हो सकती है। लेखन के लिए कोई सलाह क्या हो सकती है? जब भीतर से सलाह आती है कि अब लिखना ही है तो लिखना हमारे विचार,भावानाएं और दर्द सामने आते हैं। शिक्षक के तौर पर लिखना तो अलग है। हम अपने शिक्षण को लिखें। हमारी सोच और समस्याएं रेखांकित हो सकती है। वह काम आती हैं। मुझे लगता है कि बच्चों को उनकी उम्र और रुचि के हिसाब से किताबें देनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे चयन का अधिकार बच्चों को मिलना चाहिए। बच्चे बड़े की किताब भी पढ़ सकते हैं। पढ़ने की ललक पैदा हो चुकी है तो बड़ों की किताबें पढ़ी जा सकती हैं। पढ़ना-लिखना एकाकी प्रक्रिया भले ही है पर पढ़ने के बाद जब हम खुद में बदलाव महसूस होता है। हमारा पूरा बना हुआ इंसान जब सामने आता है तो समाज में हम जाते हैं तो हमारा व्यवहार बदला हुआ होगा। सकारात्मक होगा। फर्क तो आएगा ही। पढ़ते-लिखते हैं तो समाज के साथ व्यवहार में परिलक्षित होता है।’’
एक घण्टा पैंतीस मिनट के बाद भी आ रहे सवालों के जवाब देने की प्रक्रिया चलती रही। रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘शुरू में लेखन में पढ़े हुए से प्रभाव रहता है लेकिन जैसे-जैसे हम पढ़ते जाते हैं तो हमारे लेखन में स्वतंत्रता आती है। समूह में पढ़ने की बात करते हैं तो हम कक्षा में इसलिए भी करते हैं कि बच्चे जब समूह में पढ़ते हैं तो वे एक-दूसरे की मदद करते हैं। पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में कक्षा में छूना,देखना क्यों प्रतिबंधित है? यदि समूह में वे बच्चे काम करें तो उसकी बात ही कुछ ओर है। बच्चे दो में छोटे-छोट समूह में पढ़ सकते हैं। चीज़ें बनाते हैं। समूह में पढ़ने के कई तरीकों से वह तेजी से पढ़ना और पढ़कर अपनी बात सुनाने की गति तेजी से सीखते है। अभिभावकों की गलतफहमी है कि साहित्य बच्चों की कोर्स को बाधित करता है। साहित्य कहीं न कहीं बच्चों की समझ को बढ़ाता है। पाठ्यक्रम को सीखने-समझने और विस्तार देने में मदद ही करता है साहित्य। किसी भी बच्चे का जो व्यक्तित्व बनता है तो स्कूली किताबों से ही नहीं बनता। किताबों का महत्व नकारा नहीं जा सकता।’’
एक घण्टा बयालीस मिनट की बातचीत के बाद रेखा जी ने अपनी कक्षाओं के अनुभव भी साझा किए। सवालों के जवाब में रेखा जी ने कहा,‘‘एकांत में मौलिक लेखन नहीं होता। हम जो बोलते,सुनते,लिखते हैं वह समाज का ही हिस्सा होता है। किसी बात को अपने तरीके से लिखना शायद मौलिक है। मैं निडरता के साथ जो लिखती हूं वह मौलिक कहलाया जाएगा। बच्चों को जानवरों से प्यार होता है। बच्चे अपनी प्रकृति को जानते हैं। कल्पनाशीलता में खिलौनों से बात होती है। जमीन को चोट कैसे लगती है। बाल मनोविज्ञान कल्पना के घोड़े दौड़ाने को सही मानता है। बच्चों को साहित्य में भी वह सब देना चाहिए जो उसके समाज में है। डायरी में बच्चों की मात्र दिनचर्या कैसे बदली जाए? लगातार और धीरे-धीरे प्रयास किए जाएं तो डायरी में दिनचर्या के साथ भाव भी आएंगे। यह बड़ों के साथ भी होता है। निरन्तर अभ्यास से यह आएगा।
अंत में प्रतिभा जी कनेक्ट हुई। उन्होंने जोड़ा,‘‘यह बात सही है कि एक ही विचार का साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए। किसी के विरोध में या असहमति में जाने के लिए ज़्यादा पढ़ना होगा वह भी किसी पूर्वाग्रह के। हमें खुलेपन से चीज़ों को पढ़ना चाहिए। समझना चाहिए। हर तरह के साहित्य को पढ़ने से हम और खुलते हैं। माना कि मैं धर्म पर विश्वास नहीं करती तो मुझे समझना होगा कि मुझे धर्म की कितनी जानकारी है? तभी हम मुक्त होते हैं। किताबें अन्तिम नहीं होतीं। हम जीवन को भी तो पढ़ रहे होते हैं। हम सही साहित्य की ओर बढ़ते हैं हमारा जीवन भी तो है जिससे हम समझ रहे होते हैं।’’ 1 घण्टा 54 मिनट की बातचीत में अंत तक 94 साथी लगातार बने रहे। अंत में जगमोहन कठैत जी ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
प्रेरक संवाद
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