Monday, April 22, 2019

'ये कविताओं के पंख फ़ैलाने के दिन हैं '


'क' से कविता यह नाम नया है लेकिन इस भावना वाला काम तो मैं तकरीबन 60-65 सालों से कर रहा हूँ कि दूसरों की कविताओं को सुनाना. वहां भी दूसरों की कविताओं को सुनाना जहाँ मुझे आमंत्रित किया गया है मेरी अपनी कविताओं को सुनाने के लिये क्योंकि मुझे लगता है कि जो मुझसे भी अच्छी कवितायेँ लिखी गयी हैं वो भी उन सबको सुनानी चाहिए जो कविताओं से प्रेम करते हैं.' 
- नरेश सक्सेना 28 अप्रैल 'क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में 

'क से कविता क से क्या कहने. मेरा जो मानना है कि कविता को जन तक कैसे ले जाएँ उसका यह बहुत अच्छा उपक्रम है. जनता को कविता की समीक्षा करने का मौका मिलता है मेरे ख्याल से यह बहुत बड़ी बात है. कविता अगर जिन्दा रहेगी तो लिखने से ज्यादा ऐसे कार्यक्रमों से जिन्दा रहेगी. नये नए ज्यादा से ज्यादा लोगों का कार्यक्रम से जुड़ना ही कार्यक्रम की उपलब्धि है.
- लाल बहादुर वर्मा 28 अप्रैल 'क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में 

मुझे कार्यक्रम में आकर बहुत अच्छा लगा. मैं देहरादून का हूँ कविता के कार्यक्रम में इतने लोगों का जमा होना, बराबर बने रहना है यह बड़ी बात है. कार्यक्रम का कंटेंट, संचालन, पूरी बुनावट में जो तारतम्यता थी वो कमाल की थी. इसे जिस सादगी जिस सहज भाव से चलाया जा रहा है इसे ऐसे ही चलने दें.'
- हमाद फारुखी 28 अप्रैल 'क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में 

कविता प्रेम, सच्चाई, मनुष्यता की ओर ले जाती है. हम सबको मिलकर स्कूलों में कॉलेजों में इस तरह के कार्यक्रम को जाना चाहिए और हम सबको छात्रों को इससे जोड़ने का प्रयास करना चाहिए.-
इन्द्रजीत सिंह 28 अप्रैल 'क' से कविता

एक बेहद सादा सा, सुंदर सा भाव था मन में कि कोई ऐसा ठीहा हो जहाँ दो घड़ी सुकून मिले. रोजमर्रा की आपाधापी से अर्ध विराम सा ठहरना हो सके. जहाँ होड़ न हो, जहाँ तालियों का शोर न हो, जहाँ छा जाने की इच्छा न हो, बस हो मिलना अपनी प्रिय कविताओं से और कविता प्रेमियों से. (अपनी कविता के प्रेमियों से नहीं).और संग बैठकर पीनी हो एक कप चाय. इस विचार ने बहुत मोहब्बत के साथ कदम रखा शहर देहरादून ने 23 अप्रैल 2016 को और दो साल पूरे होते होते यह उत्तरकाशी, श्रीनगर, हल्द्वानी, रुद्रपुर, खटीमा, टिहरी, रुड़की, पौड़ी, अगस्त्यमुनि, गोपेश्वर, लोहाघाट (चम्पावत), पिथौरागढ़,बागेश्वर और अल्मोड़ा तक इसकी खुशबू बिखरने लगी. 

कब सुभाष लोकेश और प्रतिभा पीछे छूटते चले गए और रमन नौटियाल, भास्कर, हेम,पंत शुभंकर, ऋषभ, मोहन गोडबोले निशांत, प्रमोद, विकास, राजेश, नीरज नैथानी, नीरज भट्ट, सिद्धेश्वर जी, प्रभात उप्रेती, अनिल कार्की, महेश पुनेठा, मनोहर चमोली, गजेन्द्र रौतेला, भवानी शंकर, पियूष आदि इस कारवां को आगे बढ़ाने लगे पता ही न चला. गीता गैरोला दी तो सबकी प्यारी लाडली दी हैं उन्होंने इसकी मशाल जिस तरह थामी कि मोहब्बत की आंच थोड़ी और बढ़ गयी. 

देहरादून में नूतन गैरोला, राकेश जुगरान, नन्द किशोर हटवाल, नीलम प्रभा वर्मा दी ने लगातार अपने प्रयासों से और स्नेह से इसे सींचा. कल्पना संगीता, कान्ता, राकेश जुगरान, नन्द किशोर हटवाल, सतपाल गाँधी, सुरभि रावत, स्वाति सिंह, नन्ही तनिष्का सहित सैकड़ों लोग नियमित भागीदार बनते गये. कार्यक्रम की सफलता असल में शहर की सफलता है. देहरादून को अब बारिशें ही नहीं कवितायेँ भी सींच रही हैं. उत्तराखंड के अन्य शहरों को भी.

इस कार्यक्रम को व्यक्ति का नहीं, समूचे शहर का होना था. व्यक्तियों को इसमें शामिल होना था. कहीं पहुंचना नहीं था, कुछ हासिल नहीं करना था बस कि हर बैठकी का सुख लेना था, लोगों से मिलने का सुख, सुकून से दो घड़ी बैठने का सुख, प्यारी कविताओं को पढने का सुख, सुनने का सुख.

बोलने और लिखने की होड़ के इस समय में यह पढ़ने और सुनने की बैठकी बनी. लेखकों की नहीं पाठकों की बैठकी. शहरों ने इस कार्यक्रम को अपने लाड़ प्यार से सींचा. जो लोग बैठकों में शामिल होने आये थे वो इसके होकर रह गए. अब घर हो या दफ्तर कुछ भी प्लान करते समय महीने के आखिरी इतवार की शाम पहले ही बुक कर दी जाने लगी. बच्चे, युवा, साहित्यकार, बिजनेसमैन, गृहणी, शिक्षक सब शामिल हुए. सबने अपनी प्रिय कवितायेँ पढ़ीं, कितनों ने पहली बार पढ़ीं. कितनों ने ही यहाँ आकर समझा पढने का असल ढब. सुना कि किसी को कोई कविता क्योंकर अच्छी लगती है आखिर.

यह कोई नया विचार नहीं था क्योंकि बहुत से लोग मिले जिन्होंने कहा कि ऐसा तो हम सालों से कर रहे थे. कुछ बैठकों में शामिल भी हुए हम कुछ के बारे में सुना भी. महेश पुनेठा पिथौरागढ़ में 'जहान-ए-कविता' चला ही रहे थे. भास्कर भी ऐसे तमाम प्रयोग करते रहे थे. हेम तो हैं ही प्रयोगधर्मी. फिर क्या ख़ास है इन बैठकों में. खास हुआ सबका जुडना. एक नयी जगह में बैठकी की सूचना परिवार में नए सदस्यों की आमद सा लगता.

उत्तराखंड ने इन बैठकों को अलग ही ऊँचाई दी. यहाँ हमें 'मैं' से दूर रहने वाली बात पर ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. जो साथी शामिल हुए वो सब स्वयं 'मैं' से बहुत दूर थे दूर हैं. न शोहरत की तलाश, न पीठ पर किसी थपथपाहट की उम्मीद बस कि हर बैठक के बाद होना थोडा और समृद्ध, होना थोड़ा और मनुष्य, और तरल, और सरल.

इन बैठकों में शामिल लोग नाम विहीन से हो जाते थे, चेहरा विहीन. बिना तख्ती वाले लोग इतना सहज महसूस करते कि बैठकों का इंतजार रहने लगा. शहर ने बाहें पसारीं और कार्यक्रम को अपना लिया. हमें न कभी जगह की कोई परेशानी हुई न चाय की. जबकि न हमने चंदा किया न किसी से फण्ड लिया. सब कैसे इतनी आसानी से होता गया के सवाल का एक ही जवाब था प्रेम, कविताओं से प्रेम.

देहरादून में 28 अप्रैल को हुई दूसरी सालाना बैठक असल में राज्य स्तरीय बैठक न हो पाने के बाद आनन-फानन में मासिक बैठक से सालाना बैठक में बदल दी गयी. फिर न पैसे थे न इंतजाम कोई और न ही वक़्त. ज्यादातर साथी शहर में ही नहीं थे. लेकिन जब शहर किसी कार्यक्रम को अपना लेता है तो आपको ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. और यह किसी कार्यक्रम की किसी विचार की सबसे बड़ी सफलता होती है कि उसे व्यक्तिपरक होने से उठाकर समाज से जुड़ जाए. शहर के सारे लोग इसकी ओनरशिप लेते हैं. सबकी चिंता होती है कि कोई कमी न रह जाए. सब मिलकर काम करते हैं, सब मिलकर एक-दूसरे के होने को सेलिब्रेट करते हैं. मेहमान कोई नहीं होता, मेजबान सब. कोई मंच नहीं, माल्यार्पण नहीं, मुख्य अतिथि नहीं, दिया बाती नहीं, किसी का कोई महिमामंडन नहीं. जेब में चवन्नी नहीं थी लेकिन दिल में हौसला था तो निकल पड़े थे सफर
में और देखिये तो कि आज दो बरस में पूरा उत्तराखंड कविता की इन भोली बैठकियों से रोशन है.

क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में लोग मुम्बई से भी आये थे, दिल्ली से भी लखनऊ से भी और उत्तरकाशी से भी. कबीराना थी शाम...फक्कड़ मस्ती, गाँव दुआर पे कहीं बैठकर, चौपाल में, कुएं की जगत पर खेत के किनारे मेड पर बैठकर भी जैसे कबीरी हुआ करती होगी वैसी हो चलीं हैं कविताओं की ये बैठकियां. 
 

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