जैसे बुरे दिनों के लिए अम्मा छुपा के रखती थीं रसोई के डिब्बों में कुछ रूपये, जैसे बाबा बचा के रखते थे भीतर वाले खलीते (जेब) में गाढे वक़्त के लिए कुछ मुस्कुराहटें और ढेर सारी हिम्मत. जैसे हम बचपन में अपनी खाने की थाली में से बचाकर रख लेते थे बेसन का लड्डू फिर उसे सबके खा चुकने के बाद धीरे धीरे स्वाद लेकर खाते थे ठीक वैसे ही रखती हूँ अपने प्रिय लेखक के लिखे को. जब दिन का हर लम्हा आपस में गुथ्थम गुथ्था कर रहा होता है, जब सुबहों की शामों से एकदम नहीं बनती, जब नहीं लगता किसी काम में मन, न पढ़ा जाता है कुछ, न सूझता है कुछ भी लिखना. तब इस लेखक के लिखे को निकालती हूँ और जिन्दगी अंखुआने लगती है. लेखक यकीनन मानव कौल हैं. 'ठीक तुम्हारे पीछे' से बहुत पहले, 'प्रेम कबूतर' से भी बहुत पहले से वो मेरे प्रिय लेखक हैं. प्रिय निर्देशक भी. अब देख रही हूँ कि वो प्रिय अभिनेता भी बनने लगे हैं. इतनी लम्बी भूमिका है हाल ही में देखी उनकी फिल्म 'म्यूजिक टीचर' के बारे में कुछ कह पाने की कोशिश की.
सोचा था 19 को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ होते ही देखूँगी इसे, लेकिन जिन्दगी सामने आकर हंस दी यह कहते हुए कि ' तुम नहीं मैं डिसाइड करुँगी तुम कब क्या करोगी.' और मेरे पास सर झुकाने के सिवा कोई चारा नहीं था. तमाम लोग फिल्म देखकर अपनी राय देते रहे मैंने कुछ नहीं पढ़ा, किसी को नहीं. यह फिल्म मेरे लिए बुरे दिनों की खर्ची थी, इसे संभालकर खर्चना था. बेहद उलझे और निराश दिनों में उम्मीद थी कि एक फिल्म है जो मुझे डूबने से बचा लेगी. कुछ है जो बचा हुआ है. फिर एक रोज तमाम मसायलों को दूर रखकर फिल्म देखना शुरू किया. फ़ोन स्विच ऑफ करके भी कि कोई भी व्यवधान फिल्म की रिदम तोड़ दे यह नहीं चाहती थी.
सार्थक दास गुप्ता ने बेहद खूबसूरत फिल्म बनाई है. फिल्म का पहला फ्रेम जिस तरह खुलता है वो आपका हाथ पकडकर अपने साथ एक अलग दुनिया में ले जाता है. बेनी की दुनिया में, बेनी जो झरना है, गीत है, पहाड़ है, जंगल है, पुल है, नदी है. बेनी जो संगीत का शिक्षक नहीं समूचा संगीत है. पूरी फिल्म हर दृश्य में जिस तरह प्रकृति के अप्रतिम सौन्दर्य को लेकर सामने आती है वो मंत्रमुग्ध करता है. वो पहाड़ी रास्ते वैसे ही हैं जैसा होता है जीवन. देखने में बेहद खूबसूरत लेकिन चलने में साँस फूल जाय. पर्यटक का पहाड़ वहां के रहनवासियों के पहाड़ से इतर होता है. फिल्म के पहाड़, जंगल , धुंध में डूबी वादी पर्यटक की नहीं है वहां के रहनवासियों की है.
स्मृतियों का कोलाज बनता बिगड़ता रहता है. बेनी इस फिल्म के हीरो हैं लेकिन एक हीरो और है फिल्म में इसके सिनेमेटोग्राफर कौशिक मंडल. ओह इतने सुंदर दृश्य, इतना मीठा संगीत जैसे कोई जादू. अमृता बागची ज्योत्स्ना के रोल में और बेनी के रोल में मानव कौल बेहद इत्मिनान वाले सुंदर दृश्य रचते हैं. फिल्म में कहीं कोई हडबडी नहीं. सब इत्मिनान से चलता है. जैसे आलाप हो कोई...या कोई तान.
कुछ दृश्य हैं जो कभी नहीं भूलूंगी. एक दृश्य जिसमें ज्योत्सना, बेनी से पूछती है 'मेरे कान के झुमके कैसे लग रहे हैं? 'फिर आगे पूछती है 'मैं कैसी लग रही हूँ?' सादा से इन सवालों के जवाब में बेनी का गाढ़ा संकोच, शर्मीलापन उनके भीतर तक की सिहरन को बयां करने में कामयाब है.
एक दृश्य जहाँ किसी का अंतिम संस्कार होने के बाद बेनी की पड़ोसन गीता (दिव्या दत्त) कुछ चीज़ें जला रही है. चीज़ें कहीं नहीं है, आग भी जरा सी है लेकिन धुआं ...ओह उस दृश्य में वह धुआं हीरो है जिसके बैकग्राउंड में बेनी और गीता हैं. दुःख के उन पलों में दो उदास लोग एक बहुत घना रूमान रचते हुए. वो धुआं कितना कुछ कहता है. मारीना त्स्वेतायेवा की 'द कैप्टिव स्पिरिट' की याद हो आती है. काफ्का की याद उन्हीं दृश्यों में घुलने लगती है. वह बेहद खूबसूरत दृश्य है.
एक और दृश्य जिसमें बेनी बहन की शादी का कार्ड पोस्टबॉक्स में डालने की न डालने की दुविधा को कुछ लम्हों में दर्शाता है. वो कुछ सेकेण्ड भीतर की पूरी जर्नी की डिटेलिंग देते हैं.
दिव्या दत्त के बारे में अलग से बात किया जाना बेहद जरूरी है कि एक तो वो मुझे प्रिय हैं हमेशा से. जिस भी फिल्म में जब भी वो हुई हैं लगता है वो उसी किरदार के लिए जन्मी हैं. इतना इकसार हो जाती हैं वो और सच कहूँ तो वो जब तक रहती हैं सबको ओवरलैप कर लेती हैं. कमाल की अदायगी. इस फिल्म में भी गीता की भूमिका में ऐसा ही असर छोड़ जाती हैं. उनके रोल पर अलग से बात हो सकती है जिसमें बहुत सारे स्त्री विमर्श के शेड्स समाहित हैं.
मानव कौल ने इस फिल्म में अच्छा अभिनय किया है यह कहना ज्यादती होगी क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि उन्होंने अभिनय किया ही नहीं है बल्कि जिया है पूरी फिल्म को, हर दृश्य को, हर संवाद को. वो फिल्म में घुले हुए हैं. यह फिल्म मानव कौल के सिवा और कौन कर सकता था भला. यह उन्हीं की फिल्म है. हर फ्रेम में, हर संवाद में और हर मौन में मानव एकदम परफेक्ट हैं.
अमृता बागची फ्रेश हैं. वो मानव के साथ स्क्रीन शेयर करते हुए अच्छी लगती हैं और जितनी उनकी भूमिका है उसे ठीक से करने का प्रयास करने का पूरा प्रयास करती हैं.
सार्थक दासगुप्ता के और काम को देखने की इच्छा बढ़ रही है. फिल्म के तमाम और पहलुओं पर बात हो सकती है, तमाम डिस्कोर्स जो रचे बसे हैं लेकिन अभी उन पर बात करने का मन ही नहीं है. बस कि कविता सी झरती इस फिल्म के असर में रहने का मन है कुछ दिनों.
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