इन दिनों आंखों में कोई दृश्य ठहरता नहीं. कानों में कोई बात नहीं रुकती, जेहन की डायरी पर कोई लम्हा दर्ज नहीं होता...हर रोज कोरे पन्नों का शोर मौन के पानी में किसी की कंकड़ी सा पड़ता है. वो मौन को सधने नहीं देता.
संगीत की दहलीज पर किये गये सजदों में भी मानो सर ही झुक पाता है. ऊंचे पहाड़ों, खूबसूरत मंजर, सर्द हवाओं के दरम्यान न जाने कौन सी बदली आंखों से टकराती है और अतीत का कोई टुकड़ा गालों पर रेंगते हुए हथेलियों की पनाह में जा छुपता है. हथेलियां...जो आजकल बंद नहीं होतीं. खुली रहती हैं. सूरज की कोई किरन हथेलियों पर खेलते हुए किसी शातिर खिलाड़ी की तरह अतीत की नमी को चुरा लेना चाहती है. जैसे नया प्रेमी चुरा लेना चाहता है प्रेमिका की स्मतियों में दर्ज पुराने प्रेमी के बिछोह के सारे दर्द.
इस चाहना में इतनी मासूमियत है, इतनी पवित्रता कि इसके पूरे होने न होने के अर्थ बेमानी होने लगते हैं. हथेलियों पर सूरज की किरनों को खेल जारी है दूर...कहीं बहुत दूर से शहनाई की आवाज आ रही है...उदास शहनाई...
वादियों में कोहरे का खेल जारी है... खूबसूरत खेल. उदासी का अपना सौन्दर्य होता है जो बेहद आकर्षक होता है. वादियों में बादलों का खेल उसी उदासी के सौन्दर्य को बढ़ा रहा था. पहले की तरह अब किसी दृश्य को देखकर हथेलियां खिलखिलाकर आगे नहीं बढ़तीं. वो किसी दृश्य को मुट्ठियों में कैद करने को बेताब नहीं होतीं. न बारिश, न हवाएं, न बादल, न खुशबू न कविता, यहां तक कि नन्हे बच्चे की मुस्कुराहट भी नहीं. बस कि इन तमाम खुशनुमा दृश्य के सर पर हाथ फिराने की इच्छा जागती है. ये दृश्य शाश्वत रहें ये दुआ देने को जी चाहता है.
इन दृश्यों की नज़र उतारने को कुछ तलाशती हूं तो उम्र के दुपट्टे में बंधे स्म्रतियों के कुछ सिक्के ही हाथ आते हैं. इस दुनिया के निजाम ने ऐसे खोटे सिक्कों पर पाबंदी लगा रखी है.
अपनी खुली हथेलियों को देखती हूं. लकीरें कोई नहीं हैं बस कि एक खुशबू है जो लगातार झरती रहती है. हथेलियां अब बंद नहीं होतीं...हथेलियों का बंद न होना बड़ा संकेत है...इतना बड़ा संकेत कि उस पर आंखें नहीं ठहरतीं...कुछ छूटता सा महसूस होता है...कुछ टूटता सा महसूस होता है...ग़म की डली अपने नमकीन स्वाद के साथ...सांसों के साथ सरकती रहती है...
शाम की ओढ़नी में खुद को लपेटते हुए उम्र के कंधे पर सर टिका देती हूं...
वादियों में कोहरे का खेल जारी है... खूबसूरत खेल. उदासी का अपना सौन्दर्य होता है जो बेहद आकर्षक होता है. वादियों में बादलों का खेल उसी उदासी के सौन्दर्य को बढ़ा रहा था. पहले की तरह अब किसी दृश्य को देखकर हथेलियां खिलखिलाकर आगे नहीं बढ़तीं. वो किसी दृश्य को मुट्ठियों में कैद करने को बेताब नहीं होतीं. न बारिश, न हवाएं, न बादल, न खुशबू न कविता, यहां तक कि नन्हे बच्चे की मुस्कुराहट भी नहीं. बस कि इन तमाम खुशनुमा दृश्य के सर पर हाथ फिराने की इच्छा जागती है. ये दृश्य शाश्वत रहें ये दुआ देने को जी चाहता है.
इन दृश्यों की नज़र उतारने को कुछ तलाशती हूं तो उम्र के दुपट्टे में बंधे स्म्रतियों के कुछ सिक्के ही हाथ आते हैं. इस दुनिया के निजाम ने ऐसे खोटे सिक्कों पर पाबंदी लगा रखी है.
अपनी खुली हथेलियों को देखती हूं. लकीरें कोई नहीं हैं बस कि एक खुशबू है जो लगातार झरती रहती है. हथेलियां अब बंद नहीं होतीं...हथेलियों का बंद न होना बड़ा संकेत है...इतना बड़ा संकेत कि उस पर आंखें नहीं ठहरतीं...कुछ छूटता सा महसूस होता है...कुछ टूटता सा महसूस होता है...ग़म की डली अपने नमकीन स्वाद के साथ...सांसों के साथ सरकती रहती है...
शाम की ओढ़नी में खुद को लपेटते हुए उम्र के कंधे पर सर टिका देती हूं...
मौन की, स्तब्धता की अपनी अलग ही भाषा होती है, कुछ अनकही, कुछ अनसुनी
ReplyDeleteखूबसूरत इंतिखाब !
ReplyDeleteमौन जो बस महसूसा जाय....
ReplyDeleteबहुत सुंदर...मौन की भाषा
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