तो आज आखिर मेरी उससे मुलाकात हो ही गई. कितने दिनों से वो मुझे चकमा देकर निकल जाता है. कई बार तो उसकी बांह मेरे हाथ में आते-आते रह गई. और कई बार मेरा हाथ उसके कॉलर तक जा पहुंचा था फिर अचानक....
खैर, न मिलने वाली बातें रहने देते हैं. क्योंकि अभी तो वो मेरे सामने है. ठीक सामने. लेकिन उसके इस तरह सामने बैठने वाली बात को शुरू करने से पहले एक बात बतानी बहुत जरूरी है. क्योंकि अगर मैंने वो नहीं बताई तो आगे की बात शुरू ही नहीं कर पाउंगी. उसी न बताई वाली बात में उलझी रह जाउंगी.
उस रोज भी मैं उसका पीछा कर रही थी. हमेशा की तरह. मुझे तो लगता है कि मेरा जन्म ही जैसे उसका पीछा करने के लिए हुए है. खैर, उस दिन भी मैं उसका पीछा कर रही थी. अमूमन पीछे से आती आवाजों से वो चौकन्ना हो जाता और या तो अपने कदमों की रफतार तेज कर देता या रास्ता बदल देता. लेकिन उस दिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया. मुझे लगा कि पैरों को संभाल-संभाल कर आहिस्ता रखने की मेरी जुगत काम कर गई और जनाब मेरे हाथ आ गये. लेकिन नहीं, मेरी जुगत काम नहीं की थी. दरअसल, उस दिन उसके पांव से खून रिस रहा था. उसे गहरी चोट लगी थी. करीब जाने पर मैंने उसे लंगड़ाते हुए देखा. एक पैर को घसीटकर रखते हुए देखा.
मैं जल्द ही उसके बराबर चलने लगी. उसके पांव से रिसने वाला खून मिट्टी के रास्ते पर एक लकीर सी बनाता जा रहा है. मुझे एकदम ठीक से याद है कि ये बारिश के बंद होने के ठीक बाद की बात है. उसका खून जमीन ने सोखने से इनकार कर दिया था और वो फैल रहा था. जब मेरे कदम उसके कदमों के बराबर पड़ने लगे तो उसने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया. मैंने उसका चेहरा नहीं देखा था लेकिन मुझे यकीन है कि उसकी आंखों में आंसू थे. इसके पहले कि मैं कुछ कहती, उसे रोकती एक साइकिल वाला ठीक पास में फिसलकर गिर पड़ा. मैं उसकी ओर मदद करने को लपकी कि वो महाशय गायब.
मैंने उसके पैरों से रिसने वाले खून के निशान से पीछा करने की कोशिश की लेकिन ऐन मौके पर बारिश आ गई और रही सही संभावना भी जाती रही. येे पहली बार था जब मैं उसके इतनी करीब थी. उसने अगर चेहरा न घुमाया होता तो मैं पक्का अपने दिमाग में उसकी तस्वीर उतार लेती. लेकिन मैं उस दिन भी रह ही गयी बस...
खैर...आज जनाब हाथ आ गये हैं. और सामने सर झुकाये बैठे हुए हैं. बारिश अभी-अभी यहां से होकर गुजरी है. हमारे बीच चाय का एक प्याला है और ढेर सारी खामोशियां. कुछ मठरियां भी हैं. जिन्हें वो कुछ यूं देख रहा है मानो उसे उनसे कोई लेना-देना नहीं. हालांकि उसकी न देखने वाली नज़र में सदियों की भूख नुमाया हो रही है. उसके होंठ इतने सूखे हैं, उन पर जमी पपड़ियों में से खून तक रिसने की नौबत है. तो क्या इसे पानी भी नसीब नहीं हुआ....मैंने मन में सोचा.
आज जब ये जनाब सामने आये हैं तो वो सारे सवाल, वो लंबी सी फेहरिस्त अचानक गुम सी होने लगी है जे़हन से. जैसे कुछ याद ही नहीं. सच कहूं तो याद करने का मन भी नहीं हो रहा है. इस बेचारे को देखकर पुराने सारे सवाल जाते रहे. अब तो नये सवाल ही जन्म लेने लगे हैं. इसने कबसे नहीं खाया होगा? क्या है जिसका इतना सूनापन इसकी आंखों में है? इसके पैर का घाव क्या अब ठीक हो गया है? क्यों ये इतने दिनों से मुझसे आंखें चुरा रहा है?
पियो....मैंने उससे कहा. उसने सूखे पपड़ी पड़े होठों पर जीभ फिराते हुए मुझे देखा. जैसे वो मेरा कहा कनफर्म करना चाहता हो.
मैंने फिर कहा, पियो....ये चाय तुम्हारे लिए है.
वो झट से गटागट गटागट चाय पीने लगा. देखकर मुझे उसकी भूख और चाय के ठंडे होने दोनों का अंदाजा मिल गया. इस बीच एक लाल चोंच वाली चिड़िया हमारे आसपास फुदकने लगी. मैंने उसी के बारे में सोचते हुए नज़र चिड़िया पर टिका दी. वो भी चिड़िया को देखकर मुस्कुरा दिया.
अब वो मठरी को देख रहा था.
खा लो...मैंने कहा.
उसे इस बार कनफर्म करने की जरूरत नहीं महसूस हुई. वो मठरियों को कुतरने लगा. उधर चिड़िया भी कुछ कुतर रही थी.
अचानक मुझे सब याद आ गया. सब. सचमुच सब. सारे सवाल जो मुझे उससे पूछने थे. वो सारा गुस्सा भी याद आ गया जिसे लिये मैं उसका न जाने कितने सालों या सदियों से पीछा कर रही हूं. सब कुछ याद गया. मैंने समूचे गुस्से और सवालों समेत उसकी ओर देखा.
वो सहम गया. उसका खाना रुक गया. वो खड़ा हो गया.
तुम...ईश्वर हो ना? मैंने उससे गुस्से में पूछा.
उसने सर झुका लिया....उसके पैरों से खून अब भी रिस रहा था. उसकी आंखों में आंसू थे. उसने अपने झुके हुए सर को दूसरी ओर घुमा लिया.
मुझे लगा ये तो मेरे सवालों और मेरे गुस्से के लायक ही नहीं. बेवजह ही मैं अब तक इसके पीछे भागती रही.
लाल चोंच वाली चिड़िया फुदककर सामने वाले गुलाबी फूलों से लदे पेड़ पर जा बैठी थी.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज रविवार (11-08-2013) को "ॐ नम: शिवाय" : चर्चामंच १३३४....में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पहली बार आपको पढ़ा ,प्रभावी लगा पर मैं भी कुछ सवालों में उलझ गयी हूँ ......
ReplyDeleteलाल चोंच वाली चिड़ियाँ ने शायद कुछ कुछ समझ ली हो वस्तुस्थिति...
ReplyDeleteईश्वर के समक्ष कई प्रश्न लिए खड़ा है हतोत्साहित मन!
bahut badhiya ..
ReplyDeletesundar rachna .. kuchh vicharniy
ReplyDeleteप्रश्नों के समाधान ईश्वर के पास कहाँ - खोजना खुद ही पड़ेंगे !
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