Monday, May 6, 2013

यूं आंख-आंख फिरना...



सुनो, मासूम, निर्दोष , खामोश आंखों में ठहर जाने को मेरा बहुत जी चाहता है...तलाशती फिरती हूं ऐसे ठीहे जहां जिंदगी की धूप से जरा सी राहत मिले. पल भर को ही सही ऐसे ठीहों में ठहरने का अपना एक सुख होता है. तुम समझते हो ना?

तो आज का किस्सा सुनो, आज सुबह जैसे ही मैं घर से निकली वो मेरे सामने से गुजरा. उसे देखते ही मैं खिल गई. बरबस होठों पर मुस्कान तैर गई. वो भी मुस्कुरा दिया. इस मुस्कुराने में आंखों का मिलना भी शामिल  था. अब हम दोनों रास्तों में थे. अपनी-अपनी गाड़ियों पर. उसकी आंखें मुझमे क्या ढूंढ  रही थीं पता नहीं लेकिन मेरी आंखों को एक ठीहा मिल गया था. उसकी आंखों में शरारत  भरने लगी. वो अनदेखी करने की कोशिश करता, आंखें चुराता और ऐसा करते हुए भी उसकी आंखें मुझे तलाश रही होतीं. गाड़ी की रफ़्तार  उसकी मुस्कुराहट में छुप जाने को बेताब थी लेकिन उसके साथ रहने की जिद भी.

जाने कैसे हमारे रास्ते एक हो रहे थे. हम हर मोड़ पर एक साथ मुड़ रहे थे. जरा सी जो मैं आंख से ओझल होती, उसकी आंखें मुझे ढूंढने लगतीं और जैसे ही मैं दिख जाती वो मुस्कुरा देता. अब ये खेल खुल चुका था. वो देर तक बिना पलक झपकाये मुझे देखता रहा और मैं खिलखिलाकर हंस दी. मैंने दूर से उसे हाथ हिलाकर उसका अभिवादन भी किया. वो ठठाकर हंस दिया...

हम रास्तों में दौड़ते रहे. उसकी आंखों में यूं ठहरना मुझे अच्छा लग रहा था. आखिर एक मोड़ पर हमारे रास्ते बदल गये...वो मुस्कुराते हुए मुड़ गया और मैं भी...नजर पड़ी कि जिस मोड़ से वो मुड़ा उस मोड़ पर लगा गुलमोहर शरारत से मुस्कुरा रहा था...

मेरे कानों में रोज की तरह कमाल गा रहे थे---  

गिरता सा झरना है इश्क कोई
उठता सा कलमा है इश्क कोई...

अपनी मां की गोद में बैठकर कहीं जाते हुए उस ढाई बरस के बच्चे की आंखों में कुछ लम्हों के लिए यूं ठहरना...ठहरना जिंदगी में था...

फिर तुम क्यों कहते थे कि तुम्हारा यूं आंख-आंख फिरना मुझे जरा नहीं सुहाता...बोलो?

5 comments:

  1. :-)

    बस नहीं सुहाता !

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ७/५ १३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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  3. निर्दोष खामोश आँखों में ठहर जाना किसे न सुहाता होगा, इस पर ऐतराज क्या !
    बहुत खूबसूरत है आपका लिखा भी उस बच्चे की आँखों जैसा ही !

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  4. प्यार के रूप अनेक

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