उम्र का सोलहवां साल
उसने उठाकर
आँगन वाले ऊंचे आले में रख दिया था.
गले में बस माँ की स्मर्तियों में दर्ज बचपन
और स्कूल के रजिस्टर में चढ़ी उम्र पहनी
कभी कोई नहीं जान पाया
उम्र उस लम्बे इंतजार की
जो आँखों में पहनकर
ना जाने कितनी सदियों से
धरती की परिक्रमा कर रही है एक स्त्री
और संचित कर रही है
कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी टेम्स
नदी का पानी अपने इंतजार की मशक के भीतर
उसने कभी जिक्र ही नहीं किया
अपनी देह पर पड़े नीले निशानों की उम्र का
दुनिया के किसी भी देश की आज़ादी ने
किसी भी हुकूमत ने
नहीं गिने साल उन नीले निशानों के
उन नीले निशानों पर
अपनी विजयी पताकाएं ही फहरायी सबने
उम्र उस लम्बे इंतजार की
जो आँखों में पहनकर
ना जाने कितनी सदियों से
धरती की परिक्रमा कर रही है एक स्त्री
और संचित कर रही है
कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी टेम्स
नदी का पानी अपने इंतजार की मशक के भीतर
उसने कभी जिक्र ही नहीं किया
अपनी देह पर पड़े नीले निशानों की उम्र का
दुनिया के किसी भी देश की आज़ादी ने
किसी भी हुकूमत ने
नहीं गिने साल उन नीले निशानों के
उन नीले निशानों पर
अपनी विजयी पताकाएं ही फहरायी सबने
सुबह से लेकर देर रात तक
कभी दफ्तर कभी रसोई कभी बिस्तर पर
एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए
वो भूल ही चुकी है कि
ज़िंदगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले
ना जाने कितने बरस हुए
कौन लगा पायेगा पांव की बिवाइयों की उम्र का अंदाजा
और बता पायेगा सही उम्र उस स्त्री की
जिसने धरती की तरह बस गोल-गोल घूमना ही सीखा है
रुकना नहीं जाना अब तक
मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
मत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....
और बता पायेगा सही उम्र उस स्त्री की
जिसने धरती की तरह बस गोल-गोल घूमना ही सीखा है
रुकना नहीं जाना अब तक
मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
मत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....
मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
ReplyDeleteमत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....
आह!
बेहद उम्दा रचना ... सादर !
ReplyDeleteकौन करेगा नमक का हक़ अदा - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कर्मचक्र में याद न आया,
ReplyDeleteयौवन, जीवन, सब भरमाया।
मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
ReplyDeleteमत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....
अद़भुत पंक्तियां....
किया संघर्ष ही, प्रतीक्षा उत्कर्ष की।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति!
ReplyDeleteखुबसूरत प्रस्तुति
ReplyDeleteNew post बिल पास हो गया
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
bhut khub....maun kar deti rachna
ReplyDeleteकितन शौम्य व अनूठा सृजन.काबिले तारीफ जी .....
ReplyDeletebahut sundar ... hamesha kee tarah
ReplyDeleteजिसको बार बार पढने को मन करे ऐसा आपकी इस रचना को कहा जा सकता है |
ReplyDeleteकि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
ReplyDeleteअभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....
bahut sundar
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी....!!!
ReplyDeleteमैं मूरख अब भी उँगलियों पर सोलह की गिनती गिन रहा हूँ .
ReplyDelete"सुबह से लेकर देर रात तक
ReplyDeleteकभी दफ्तर कभी रसोई कभी बिस्तर पर
एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए
वो भूल ही चुकी है कि
ज़िंदगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले
ना जाने कितने बरस हुए !"
और इसी परिक्रमा में उसकी जिंदगी चुक जाती है...!
फिर कहाँ याद रहती है कि वो सोलह की है या बाईस की...!