Monday, January 28, 2013

आपन गीत हम लिखब...



अब अपनी बात हम खुद लिखेंगे
जैसे चाहेंगे वैसे जियेंगे
न जी पायेंगे अगर मर्जी के मुताबिक, न सही
तो उस न जी पाने की वजह ही लिखेंगे,
हम खुद लिखेंगे चूल्हे का धुआं
सर का आंचल, और बटोही में पकती दाल के बीच
नन्हे के पिपियाने की आवाज और
ममता को ठिकाने लगाकर भूखे बच्चे को पीट देने की वेदना
हम खुद लिखेंगे अपनी उगार्इ फसलों की खुशबू
और कम कीमत पर उसके बिक पाने की तकलीफ भी.
यह भी कि निपटाते हुए घर के सारे काम
कैसे छूट ही जाता है हर किसी का कुछ काम
और देर हो ही जाती है आए दिन आफिस जाने की
कि हर जगह सब कुछ ठीक से जमा पाने की जिद में
कुछ भी ठीक न हो पाने की पीड़ा भी हम ही लिखेंगे
लिखेंगे हम खुद कि जिंदगी के रास्तों पर दौड़ते-दौड़ते भी
चुभती हैं स्मतियों की पगडंडियों पर छूट गर्इ परछार्इयां
और मुस्कुराहटों के पीछे कितनी चीखें छुपी हैं
न सही सुंदर, न सही इतिहास में दर्ज होने लायक
न सही भद्रजनों की बिरादरी में पढ़े-सुने देखे जाने लायक
फिर भी हम खुद ही लिखेंगे अपने बारे में अब सब
और खुद ही करेंगे अपने हस्ताक्षर अपनी रचनाओं पर


यह कविताओं की बात नहीं है. यह जीवन की बात है. हम औरतों के जीवन की बात है. हम औरतें जिन्होंने कभी कुछ कहना नहीं सीखा बावजूद इसके कि हम बोलती बहुत हैं. कमर और पीठ के दर्द से कराहते हुए भी कोर्इ हमसे पूछे कि कैसी हो गुडडन की अम्मा तो हम चिहुंक के जवाब देती हैं मजे में हैं...

न जाने कितनी सदियों से हमें किसी विषय सा देखा गया. हमारे बारे में लिखा गया. लिखा गया हमारा भोगा हुआ सच इतने सुंदर ढंग से कि हमें लगा कि हम खुद के ही सच से अनजान थे अब तक तो. लिखने वालों को आता था हमारी संवेदनाओं की उन पर्तों तक पहुंच पाना जहां अक्सर हम खुद ही नहीं पहुंच पाते थे, या कभी पहुंच पाते थे तो हमारे हाथ पांव थक चुके होते थे और जेहन बेहाल कि कुछ सोचने का मन भी नहीं करता था. हम अपनी जिंदगी के पन्नों से खुद को बेदखल करने में ही आसानी पाते थे. या सच कहें तो कहां फुर्सत थी हमें अपनी बिंवाइयों की ओर देखने की या माथे पर उभर आयी सलवटों को टटोलने की. कब था वक्त हमारे पास कि अपने आंसुओं का स्वाद चख भी सकें और पन्नों पर रख भी सकें. सदियों से हमने बस चलते जाना सीखा और सीखा मुस्कुराना जीवन जैसा भी मिला उसे जीना. शिकायत करने के लिए हमने गढ़ लिये भगवान और अपने सर पर जमा लिया व्रतों उपवासों का ठीकरा. कि भूखे पेट में भी हमने अपने लिए भूख का ही रास्ता चुना र्इश्वर तक पहुंचने का और नंगे पैरों के लिए चुना जलती दोपहरों में नंगे पांव रेगिस्तान पार करने की तरकीब. सुना था कि खुद को तड़पाने से कम होते हैं दिल के टूटने के जख्म और मिट जाते हैं जिंदगी से सारे गिले.

हमने न लिखना सीखा न पढ़ना, हमने तो बस जीवन को सर पर उठाया और भटकते फिरे इस गली से उस गली. इन्हीं गलियों से भटकते हुए कहीं कोर्इ मुसाफिर टकराया तो हम मुस्कुरा दिये. उस मुसाफिर को लोगों ने कवि कहा. उस कवि ने हमारी मुस्कुराहटों के भीतर के छेद का भेद पा लिया. उसने उसी भेद को लिखा, लिखा कि जीवन मुशिकल है सित्रयों का कि वो छुपाये रहती हैं आंचल में दूध और अांखों में पानी कि किसी ने अंगार देखे आंखों में तो दर्ज किया कि हिम्मत की ऐसी मिसाल न देखी न सुनी. पूरी दुनिया को सित्रयों की दुनिया में दिलचस्पी हुर्इ और कविताओं की फसल लहलहाने लगी. पूरी दुनिया में सित्रयों के जीवन के पन्ने लिखे जाने लगे. लिखे जाने लगे उनकी आंखों के आंसू और होठों की मुस्कान. रूस हो या जर्मनी, अमेरिका हो या अफ्रीका दुनिया के हर देश में सित्रयों पर कविताओं की बाढ आने लगी. कहीं सौंदर्य की अपरिमित परिभाषाएं कहीं वेदना के करूण स्वर.

हम पर लिखने वाले हमारे शुभचिंतक थे. वो हमारी दुनिया के दुख, दर्द, आंसू और मुस्कान सामने लाना चाहते थे. वो हमारा हाथ थामकर हमें अवसाद के अंधेरों से मुक्त करना चाहते थे. हम उन्हें उत्सुकता से देख रहे थे. उनके उस लिखे में खुद को देख रहे थे जो उन्होंने हमसे जानकर हमारे लिए लिखा था.

हम आभार से भर उठे. लगा कोर्इ तो है जिसने हमें हमसे भी ज्यादा जाना. जिसने हमारी सांसों के भार को जस का तस उतार दिया और उस दर्द को भी जिसे सीने से लगाये हमें आदत सी हो चली थी वैसे ही जीने की. सूरज की रोशनी को माथे पर हमने कभी रखा ही नहीं उसे हमेशा दूसरे का हिस्सा जानकर, मानकर ही खुश रहे. खुश रहे दूसरों के लिए छांव बुनने और अपने लिए धूप चुनने को ही माना अपने हिस्से का सच. हमारा यही सच बना दुनिया भर के कवियों के लिए औषधि. हम विषय बने और हमारी दुनिया के दरवाजे कविताओं के मार्फत खुलने लगे.

एक रोज साफ-सफार्इ, झाड़ू बुहारन करते-करते कलम हमारे हाथ भी आ गर्इ. उसे छूकर देखा तो जुंबिश महसूस हुर्इ. कागज पर फिराया तो कुछ शब्द जी उठे. हम घबरा गर्इं. ये क्या होने लगा. भला हम कैसे लिख सकते हैं कुछ भी. अपना ही लिखा समेटकर छुपा दिया. डर के मारे पसीना आ गया हमें. किसी ने देख लिया तो? नहीं...नहीं...हमने तो कुछ भी नहीं लिखा. हम क्या जानें लिखना पढ़ना. लोगों को ही हक है हम पर लिखने का, हमारे बारे में लिखने का. ये अक्षरों का जादू था या हमारे भीतर पड़े अंकुर कि कलम हमें लुभाने लगी और जब-तब हम कुछ लिखने लगे. नहीं पता था कि वो कविता है भी या नहीं बस इतना पता था कि हमने अपने बारे में कुछ खुद लिखा था. पहली बार. पूछा नहीं था किसी से, महसूस किया था. कुछ आड़ी-टेढ़ी इबारतें थीं कुछ लेकिन उनमें हमारा भोगा हुआ सच सांस ले रहा था. लिखना कोर्इ डाइनिंग टेबल पर रखा फल नहीं था हमारे लिए कि उठाया और खा लिया. दूर किसी बीहड़ की यात्रा के बाद न जाने कितने कांटों मेंं आंचल उलझाने के बाद, लहूलुहान देह को संभालते हुए किसी फल के पास पहुंचने जैसा था ये. ये था वैसा ही जैसे सदियों की प्यास को होठों पर सजाकर तपती दोपहरों में रेत के धारे पार किये जाएं. हमारे शब्दों में रूमानियत कम रूखापन ज्यादा आया. हमने अपने आपको सौंदर्य की उपमाओं से पार किया और जीवन के सख्त सौंदर्य को रचा. रचा हमने अपना संसार. अपनी ख्वाहिशों का संसार.

ये सफर आसान नहीं था हमारे लिए. चूल्हे पर जलती रोटियों के बीच, बीमार बच्चे के माथे पर पटटियां बदलते हुए, भागकर पकड़ते हुए सिटी बस, बास की डांट खाने के बाद मुस्कुराते हुए कस्टमर डील करते हुए लिखने का सफर आसान नहीं था लेकिन यकीन मानिए राहत भरा था. जब रोने का होता था मन तो हम आंसू लिखने लगे और जब खुश हुआ दिल का कोर्इ कोना तो दुपटटा झटककर हमने आसमान से सारी खुशियों को धरती पर झाड़ लिया. लिख लिया धरती का हर कोना अपने नाम और आसमान को झुका लिया कदमों में. अब हम मुस्कुराने लगे कि अब हम खुद लिख रहे थे अपना ही सच. झाड़कर दुनिया की तमाम कड़वाहटें हमने मुस्कुराहटें लिखीं. हमने अपने संघर्ष लिखे. नहीं...हमारा लिखना सिर्फ हमारे इर्द-गिर्द भर सिमटा नहीं रहा. हमने देश दुनिया समाज को अपनी नजर से देखा, सुना, समझा, जाना और महसूस किया. हमारे लिखे ने हमेंं कारावासों का रास्ता दिखाया. हमें देश से निष्कासन मिला, समाज से बहिष्कार मिला. ये हमारी ताकत थी कि हमारे लिखे से खतरा महसूस होने लगा देश, दुनिया, समाज को.

उन लोगों को भी जिन्होंने हमारे हितैषी होने का भ्रम देकर हमें लिखने को उत्साहित किया था. उन्होंने हमें हौसला दिया और दिशा भी, निर्देश भी. प्रोत्साहन भी और प्रशंसाएं भी. कि अचानक हमें बिठाया जाने लगा सफलताओं के नये-नये आसमानों पर कि हमने अपना सच कहना सीख लिया है. वो हमारे मसीहा थे जिन्होंने अपने कंधों पर हमारे लिखे को उठा रखा था.

हमने लिखना ही नहीं पढ़ना भी सीख लिया था. हमें खुद दिशाबोध होने लगा. हमें निर्देशों की जरूरत नहीं रही. न इसकी कि कोर्इ बताये कि कैसी कविता अच्छी होती है कैसी बुरी. किस तरह लिखा जाए तो वो श्रेष्ठ कहलायेगा और किस तरह का लिखा कूड़ा कहलायेगा. हमने सोचा अगर सारे ही लोग मानेंगे निर्देश तो सिर्फ अच्छी कविताएं ही लिखी जायेंगी और सिर्फ श्रेष्ठ कवियों का ही जन्म होगा. तो क्यों न तोड़ी जाए आचार संहिता और लिखा जाए नया विधान. कि न सही मेरी कविता में दुनिया को बदलने का माददा, न छापे कोर्इ साहित्य संपादक इसे अपनी प्रतिषिठत पत्रिका में, न मिले कोर्इ वाहवाही और पुरस्कार कि ये सब आप ही रख लो सरकार कि हमें तो बस लिखने दो वो सब जो हम लिखना चाहते हैं. टूटते हैं कविता के मापदंड तो टूटने दो, हम सजा भुगतने को तैयार हैं. सित्रयों की कूड़ा कविताओं का दौर रख देना इस दौर का नाम फिर भी लिखना है हमें अपनी जिंदगी का पूरा सच. नहीं बनाना लिखते वक्त किसी को प्रेम का देवता न ढांकनी ही किसी सियासतदां की काली करतूत. जानते हैं हम हमारी दुनिया में अब किसी के निर्देशों की जगह नहीं बची. हम अभय हुए हैं. डरते नहीं किसी से. न आलोचना से बुरा लगता है हमें न प्रशंसाओं से इतराते फिरते हैं हम. अरे, प्रशंसाओं का भ्रामक धनुष तो सीता स्वयंवर से भी पहले ही तोड़ दिया था हमने.

हमारा ये बेखौफ होना कैसे रास आता भला इस दुनिया को. नर्इ चौसर बिछार्इ गर्इ. नर्इ बिसात. नये नियम. बड़े मोहब्बत से हमें समझाया गया कि कविता लिखना बहुत जोखिम का काम है. इंसान इतिहास में दर्ज होता है कविता लिखकर. चंद बड़े नामों को आंखों के सामने दर्ज किया गया. देखो, तुम भी ऐसे ही चमकोगी इतिहास में. कितना सुंदर लिखती हो तुम बस कि थोड़ा ध्यान रखो. भाषा अच्छी है बस जरा विचार को मोड़ो, भावों में जरा सा परिवर्तन करो, न ऐसे नहीं...वैसे लिखो फिर देखो कैसे तूफान आता है. सचमुच आने ही लगा तूफान. औरतों ने अब तूफानी गति से लिखना शुरू कर दिया है. हर कविता तूफान लाती है, वो तूफान जाता कहां है यह पूछना अभी बाकी है. दिशा निर्देशों की तालिका सूची टंगी हैं यहां वहां. लिखी जा रही हैं खूब सारी कविताएं हर रोज...लेकिन शायद ये वो कविताएं नहीं हैं जिनको लिखने के लिए पहली बार कलम थामी थी हाथ में. खुरदरी ही सही पर उनमें एक खुशबू थी जिसे दुनिया ने महसूस किया था. एक सच था जिससे समाज ने खतरा महसूस किया था लेकिन बहुत जल्द हमारी कलम रेशमी शब्दों से परिचित करा दी गर्इ. उसे वो रास्ते बता दिये गये जहां से होकर कविता लोकप्रियता की ओर बढ़ती है.

आज फेसबुक से लेकर ब्लाग, वेबसाइट, आरकुट हर जगह कविताओं की बाढ़ आर्इ हुर्इ है. ग्रहिणी हो या कामकाजी औरत, कंपनी की सीर्इओ हो या डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार हर कोर्इ अभिव्यकित के हथियार को हाथ में थामे है. हर कोर्इ लिख रहा है. उनका लिखना जितना सुंदर है उनके लिखने को निर्देशित करना उतना ही गलत लगता है मुझे. फूल को अपने ही ढंग से खिलने देने पर ही उसका असल सौंदर्य सामने आता है. आखिर किस खतरे के प्रति आशंकित है यह समाज कि अगर सित्रयां खुद अपनी मर्जी से अपने सफर पर चल पड़ेंगी तो क्या हो जायेगा...कहीं कोर्इ भूचाल नहीं आ जायेगा, बस कुछ सच सामने आयेंगे. आने दीजिए ना...मत भरमाइये हमें कि हम बिना पुरस्कारों के, बिना लोकप्रियता के ही भले. हम तो खुश हैं कि हमने सीख लिया है सच को सच और झूठ को झूठ लिखना. कितनी खलबली है आपके समाज में....

(अहा जिन्दगी के साहित्य विशेषांक में प्रकाशित)

9 comments:

  1. रचना और आलेख दोनों ही सार्थक हैं!

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  2. आपकी कलम का मैं हमेशा से प्रशंसक रहा हूं,
    आपको पढ़ना वाकई सुखद है।
    बहुत बहुत शुभकामनाएं....

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  3. सार्थक रचना सार्थक आलेख...
    बेहतरीन...

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  4. कि हर जगह सब कुछ ठीक से जमा पाने की जिद में
    कुछ भी ठीक न हो पाने की पीड़ा भी हम ही लिखेंगे.....मैंने पढ़ा था अहा जिंदगी में इसे....सच और बेहद खूबसूरत लि‍खा है आपने..

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  5. रचना और आलेख दोनों बेहतरीन है......

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  6. फिर भी हम खुद ही लिखेंगे अपने बारे में अब सब
    और खुद ही करेंगे अपने हस्ताक्षर अपनी रचनाओं पर

    ....बहुत सारगर्भित और सटीक अभिव्यक्ति..

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  7. लिखा गया हमारा भोगा हुआ सच इतने सुंदर ढंग से कि हमें लगा कि हम खुद के ही सच से अनजान थे अब तक तो. लिखने वालों को आता था ....

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