Friday, December 14, 2012

बेसलीका ही रहे तुम


तुम्हें जल्दी थी जाने की
हमेशा की तरह
वैसी ही जैसे आने के वक्त थी

बिना कोई दस्तक दिए
किसी की इजाजत का इंतजार किये
बस मुंह उठाये चले आये
धड़धड़ाते हुए
चंद सिगरेटों का धुंआ कमरे में फेंका


मौसम के गुच्छे
उठाकर टेबल पर रख दिए
थोड़ा सा मौन लटका दिया उस नन्ही सी कील पर
जिस पर पहले कैलेंडर हुआ करता था

फिर एक दिन उठे और
बिना कुछ कहे ही चले गये
जैसे कुछ भूला हुआ काम याद आ गया हो
न..., कोई वापसी का वादा नहीं छोड़ा तुमने
लेकिन बहुत कुछ भूल गये तुम जाते वक्त
तुम भूल गये ले जाना अपना हैट
जिसे तुम अक्सर हाथ में पकड़ते थे

लाइटर जिसे तुम यहां-वहां रखकर
ढूंढते फिरते थे
लैपटाप का चार्जर,
अधखुली वार एंड पीस,
तुम भूल गये दोस्तोवस्की के अधूरे किस्से
खिड़की के बाहर झांकते हुए
गहरी लंबी छोड़ी हुई सांस

तुम समेटना भूल गये
अपनी खुशबू
अपना अहसास जिसे घर के हर कोने में बिखरा दिया था तुमने

टेबल पर तुम्हारा अधलिखा नोट
तुम ले जाना भूल गये अपनी कलाई घड़ी
जिसकी सुइयों में एक लम्हा भी मेरे नाम का दर्ज नहीं
आज सफाई करते हुए पाया मैंने कि
तुम तो अपना होना भी यहीं भूल गये हो
अपना दिल भी
अपनी जुंबिश भी
अपना शोर भी, अपनी तन्हाई भी
अपनी नाराजगी भी, अपना प्रेम भी

सचमुच बेसलीका ही रहे तुम
न ठीक से आना ही आया तुम्हें
न जाना ही...

13 comments:

  1. बहुत ख़ूब, बेसलीका और बेफ़िक्री में जीने का आनन्द

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  2. सम्‍बन्‍धों के अधूरेपन का अद्भुत प्रकटीकरण।

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  3. तुम समेटना भूल गये
    अपनी खुशबू
    अपना अहसास जिसे घर के हर कोने में बिखरा दिया था तुमने

    सुंदर अभिव्यक्ति .....

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  4. वाह ... बहुत खूब

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  5. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..
    बेहतरीन...
    :-)

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  6. समेटे बिना चले जाने का दर्द पीछे वाले के लिए और भी दुःखदाई पल इस जिंदगी के

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  7. ♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
    ♥♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥♥
    ♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥



    तुम तो अपना होना भी यहीं भूल गये हो
    अपना दिल भी
    अपनी जुंबिश भी
    अपना शोर भी, अपनी तन्हाई भी
    अपनी नाराजगी भी, अपना प्रेम भी

    सचमुच बेसलीका ही रहे तुम
    न ठीक से आना ही आया तुम्हें
    न जाना ही...

    अप्रतिम ! अद्वितीय ! अद्भुत !

    आदरणीया प्रतिभा जी
    आपकी रचनाओं के लिए कोई क्या कहे …
    हर रचना सुंदर रचना !
    हर कविता में आपकी अलग छाप साफ़ नज़र आती है ...



    शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार
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  8. मेरे लौटने से भी,
    क्या होगा?
    न लोग मुझे पहचानेँगे,
    न तुम
    मेरे चलते ही
    निकाल दिया था
    तुमने घर से बाहर,
    याद है उस रात कि बारिश,
    मैँ बीमार था,
    कि;
    अचानक और बीमार हुआ,
    तुमने नाड़ी देखा,
    और
    निकाल दिया,
    मुझे मेरे ही घर से,
    उस घर से,
    जिसे सजाने मे मैँने
    पूरी जिँदगी बिता दी.
    जिसकी एक एक ईँट,
    मेरे मेहनत से था,
    सब खत्म कर दिया,
    तुमने मेरे मरते ही
    मुझे जला दिया
    ये जानते हुए भी कि,
    मैँ आग से डरता था ...

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  9. मेरे लौटने से भी,
    क्या होगा?
    न लोग मुझे पहचानेँगे,
    न तुम
    मेरे चलते ही
    निकाल दिया था
    तुमने घर से बाहर,
    याद है उस रात कि बारिश,
    मैँ बीमार था,
    कि;
    अचानक और बीमार हुआ,
    तुमने नाड़ी देखा,
    और
    निकाल दिया,
    मुझे मेरे ही घर से,
    उस घर से,
    जिसे सजाने मे मैँने
    पूरी जिँदगी बिता दी.
    जिसकी एक एक ईँट,
    मेरे मेहनत से था,
    सब खत्म कर दिया,
    तुमने मेरे मरते ही
    मुझे जला दिया
    ये जानते हुए भी कि,
    मैँ आग से डरता था ...

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  10. hone aur na hone ke beech ke khalee pan kee sunder abhivyakti.

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  11. मौसम के गुच्छे
    उठाकर टेबल पर रख दिए
    थोड़ा सा मौन लटका दिया उस नन्ही सी कील पर
    जिस पर पहले कैलेंडर हुआ करता था

    gazab kee gahrayee !

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