Tuesday, December 11, 2012

जीवन यात्रा को विराम कब मिलेगा?

10 नवंबर-
पूरा दिन जैसे सर्रर्रर्र से बीत गया हो. पूरे हफ्ते की मेहनत का रंग आज दिखा. एक सेमिनार होना था जो खूब अच्छा हो गया. कैम्पस में लोगों से बात करते हुए कितनी पर्तें खुलीं. यूं पहले भी पूरा मुंह आंचल में ढंके दौड़ती भागती औरतों ने मुझे पहले दिन से आकर्षित किया था. मैं अपने पत्रकार को आजकल सुला के रखती हूं. फिर भी वो बीच-बीच में आँखें खोलता ही रहता है. बच्चियां पूरे उत्साह से बात करती हैं. फौजिया, हिना, महताब, गुल...मैं उन्हें अपनी एक और दोस्त फौजिया के बारे में बताती हूं तो वे शिकायत करती हैं कि यानी आपको बस फौजिया ही याद रहेगी. लड़कियां भले ही पर्दे में हों लेकिन उनके जेहन में पर्दा हरगिज नहीं था. उन्हें सब पता है दुनियादारी. ओबामा को क्यों मीडिया इतना कवरेज देता है इरोम शर्मिला को क्यों नहीं....वो सवाल उछालती हैं. हम क्या नहीं जानते इन सवालों का जवाब. हमें सब पता है कि सियासत कब, कहां, कैसे इंसानियत का सीना छलनी करती है और कैसे बाजार खबरें बनाता है.

मैं मुस्कुराती हूं. सुन लो दुनियावालों, तहरीर चौक जल्द ही गली-गली में नजर आयेंगे. मन ही मन सोचती हूं.
ये आखिरी दिन था श्रीनगर में. इस दिन के हिस्से बड़े काम थे. बचे हुए श्रीनगर को घूमना भी, शापिंग भी और वापसी की तैयारी भी. जाने वक्त को पता चल गई हमारी मुश्किल कि प्रदीप जी की प्लानिंग काम आई दिन मानो फैलकर दोगुना हो गया. हालांकि इसमें हमारा लंच न करने का इरादा भी काम आया.

शालीमार गार्डन, मुगल गार्डन, चश्माशाही, निशात गार्डन, परी महल...जर्रर्रर्र से घूम लिये. मानो किसी ने पकड़कर गोल गोल घुमा दिया हो. हालांकि जिस जगह का जर्रा-जर्रा खुदा ने खुद संवारा हो वहां अलग से किसी गार्डन में जाना क्या और न जाना क्या...फिर भी... इन सारे गार्डन के लिए जाने के लिए हमें डल झील के किनारों पर ही दौड़ना था और ये बेहद खूबसूरत बात थी.

रात आई तो बाजारों का रुख किया गया. बाजारों को हमने अपनी जेबों में यथासंभव ठूंसा और लौटे अपने ठीहों पर. ये आखिरी रात थी. हम देर तक बैठे रहे. रनदीप का दिल आ गया था श्रीनगर पर. वो यहीं छूट जाना चाहती थी. उसकी आंखें छलक रही थीं. हमें वापस क्यों जाना है....क्योंकि वापस फिर आना है. और उसी रात ये तय हुआ कि हम फिर आयेंगे...
इसी वादे को सिरहाने रख हम सोने गये तो घर वापसी की स्वप्निल रजाई ने हमें ढांक लिया.
11 नवंबर-
आज आखिरी दिन था. मलिक साब मिलने आये थे. नाश्ता करते हुए उनकी और अनंत जी की बातचीत को सुनते हुए मैं पराठा कुतर रही थी. मलिक साब ने हमारी काफी मदद की थी. बड़े खुश मिजाज इंसान हैं वो. उनसे पहली मुलाकात देहरादून में ही हुई थी. उन्होंने एजूकेशन सेक्टर में काफी काम किया है. वो भी अलग ढंग का काम. शिक्षा के भारतीय दर्शन पर काम किया है. उनसे मिलकर अच्छा ही लगता है हमेशा.
एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच का लंबा सिलसिला था. एक खूबसूरत जगह जहां प्यार के फूल खिलते हों कैसे छावनी में तब्दील हो गया है. न जाने किसकी काली नजर लग गई? क्यों बंदूकों का सीना कांप नहीं गया, क्यों उनके सीने से गोलियों की जगह फूल नहीं बरस उठे...

श्रीनगर एयरपोर्ट पर मैं अपने साथियों से बिछड़ गई. मेरे हिस्से में आया था एयरपोर्ट पर इंतजार. करीब तीन घंटे अपने सामान से मुक्त होकर काॅफी पीते हुए, निर्मल को पढ़ते हुए अजनबी चेहरों को देखते हुए बिताना...जाने क्यों हमेशा से अच्छा लगता रहा है. इतने रिलेक्स होकर मैंने किसी को भी रेलवे स्टेशन पर इंतजार करते हुए नहीं देखा.
मैंने तीसरा काफी का प्याला लेते हुए खुद से वादा किया नो मोर काफी प्रतिभा...लेकिन दिल्ली पहुंचते-पहुंचते दो काफी और हो ही गई. कभी-कभी नियम तोड़ने में हर्ज ही क्या है.
दिल्ली पहुंचते ही दुनिया बदल गई. लदे हुए कपड़े हमें एलियन बना रहे थे. यहां सर्दी बस छू रही थी. मेरे पास वक्त भी नहीं, सुविधा भी नहीं कि दूसरी फ्लाइट का टाइम हो रहा था. लगभग भागते हुए मैंने अपनी फ्लाइट पकड़ी। फिर वही काफी, वही सैंडविच वही, निर्देश बस इस बार बदलाव इतना था कि मैं लखनऊ जा रही थी. चंद घंटों में बिटिया के पास....
अमौसी एयरपोर्ट पर उतरते ही किसी अपनेपन की खुशबू में भीग गई. धनतेरस की रात सजे हुए शहर को देखते हुए घर पहुंचना...मेरा लड्डू...(मेरी बिटिया) दरवाजे पर खड़ी मिली...
यात्रा को एक सुंदर विराम मिला...जीवन यात्रा को विराम कब मिलेगा?

4 comments:

  1. जिससे दुकान चलती है तरजीह उसी को देता है मीडिया..

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  2. क्या जरूरत है विराम की चलने दो

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  3. अभी यात्रा को विराम कहाँ ? रोचक वर्णन

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