जनवरी-
सर्दियों के लिहाफ से चुपके निकलता है सूरज
कुछ चहलकदमी करके, वापस लौट जाता है
यादों को लौटने का हुनर क्यों नहीं आता...
फरवरी-
सुर्ख फूलों की क्यारियां,
बच्चों की हंसी की खुषबू
तेरी याद सी मासूम...
मार्च-
धरती ने पहनी धानी चूनर
लगाया अमराइयों का इत्र
और तेरी याद का काजल...
अप्रैल-
झर गयी हैं स्मतियां
खाली पड़े हैं आंखों के कोटर
नये भेश में आर्इ है याद इंतजार बनकर...
मर्इ-
हांफते दिनों का हाथ थाम
रात तक बचा ही लेता हूं
आंख की नमी...तुम्हारी कमी....
जून-
गुलमोहर और अमलताष
कुदरत के दो रंग, दो राग
तीसरा तुम्हारी याद...
जुलार्इ-
बूंदों की ओढ़नी
मोहब्बत का राग
और तुम्हारा नाम...
अगस्त-
दिन की किनारी पर बंधे
दिन... रात...
और तुम्हारे कदमों की आहट
सितंबर-
लाल आकाष पर समंदर की परछांर्इ
रात के माथे पर उगते सूरज की तरह
जैसे तूने जोर से फूंका हो रात को...
अक्टूबर-
वक्त की षाख से उतरकर
कंधे पर आ बैठे हैं
सारे मौसम...
नवंबर-
न जाने कितने लिबास बदलने लगा है दिन
षाम सजनी है किसी दुल्हन की तरह
तेरा जिक्र करता है करिष्मे क्या-क्या...
दिसंबर -
मीर की गजलों का सिरहाना बनाकर
धूप में बैठकर सुनता हूं
तेरे कदमों की आहट....
मैंने दैनिक जागरण में पढ़ी थी यह कविता। बहुत सुन्दर, भावुक, बेचैन करनेवाली।
ReplyDeleteबहुत भावुक, सुन्दर और बेचैन करनेवाली।
ReplyDeleteअहा, आनन्दमयी कविता।
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