ज़िंदगी से ख्वाहिशें हज़ार मेरी भी थीं लेकिन उनका रूप रंग वीयर्ड था शायद. किसी एलियन की तरह कभी परिवार में कभी दोस्तों के बीच अपने 'होने ' में अपने 'ना होने' को चुराते हुए हमेशा महसूस हुआ कि ये वो सफ़र नहीं है शायद जिसमें बड़ी हसरतों से शामिल हुई थी. ना जाने कब, कैसे रास्ते मुड़ते गए और हमें अपना ही चेहरा अजनबी लगने लगा. फिर खुद को समझाने के लिए कई तरह के तर्क ढूंढ लिए...ज़िंदगी ऐसी ही होती है. लेकिन नहीं...'ज़िंदगी जैसी है वैसी मुझे मंजूर नहीं' की तर्ज पर अपने भीतर एक आक्रोश को पलने दिया. लेकिन सिर्फ आक्रोश से आप कुछ नहीं कर सकते...वो आपका जीना मुश्किल ही करता है....ऐसे ही मुश्किल भरी लम्बी काली रात आखिर विदा हुई.
एक ऐसे ठिकाने पर हूँ जहाँ लोगों में प्यार है, संभाल है, सद्भाव है...एक सिरे से उगता है राग खमाज तो दूसरे सिरे पर कुमार गंधर्व कबीर गा रहे होते हैं. जहाँ 'मैं' धराशायी हैं सारे, या तो 'आप' हैं या 'हम'. काम है पर काम सा नहीं लगता, ऑफिस है जो घर सा लगता है. बॉस हैं जो किसी दोस्त से लगते हैं. किताबों की खुशबू है...और दूर तक फैला हुआ ऐसा एकांत कि कुछ गुना जा सके, कुछ बुना जा सके.
कितने दिन हुए किसी ने किसी की बुराई नहीं की. किसी राजनीति का कसैलापन जबान पर नहीं बैठा, नहीं दिखा कोई जेंडर बायस. नहीं लड़ना पड़ा एक सिगल कॉलम जेनुइन खबर के लिए और साथियों के बीच नहीं उठीं तलवारें महिला मुद्दों पर बात करने पर. कितने दिन हुए ज्यादा बोले हुए. सुनती ही ज्यादा हूँ इन दिनों. हर किसी का बोलना किसी संगीत को सुनने सा लगता है और दे जाता है बहुत कुछ. किसी अनाड़ी की तरह अक्सर शामिल होती हूँ उन सबके बीच और देखती हूँ ज्ञान की डालियों को लगातार झुकते हुए. अहंकार का कोई रूप नहीं दिखा कई दिनों से.
कई दिनों से सूरज सही समय पर आ बैठता है खिड़की पर और चमकता ही रहता है देर रात तक...बड़ी अनमनी सी हो चली हैं अमावस की रातें...
कई दिनों से सूरज सही समय पर आ बैठता है खिड़की पर और चमकता ही रहता है देर रात तक...बड़ी अनमनी सी हो चली हैं अमावस की रातें...
:-)
ReplyDeleteकब से तुम्हें ऐसे देखने के लिए तरस रहे हैं बेटा ? जियो !
उम्दा चिंतन है प्रतिभा जी, मिलिए रामगढ में सुतनुका देवदासी से।
ReplyDeleteसुन्दर.............................
ReplyDeleteअनु
'दूर तक फैला हुआ ऐसा एकांत कि कुछ गुना जा सके, कुछ बुना जा सके.'
ReplyDeleteगुनते बुनते यूँ ही चलता रहे सफ़र... शिकायत का मौका न दे ज़माना!
आपके ब्लॉग की चर्चा। यहाँ है, कृपया अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं
ReplyDeleteकुछ देर अपने में ही सिमट जाना, पुनः ऊर्जस्वित होने के पहले..
ReplyDeleteसुन्दर चिन्तन
ReplyDeleteविश यू हैप्पीनेस फॉरएवर!
ReplyDeleteye parivartan bhi jeevan ka ek mahatvpoorn padav hai.
ReplyDeletehttp://chahalpahal-kavita.blogspot.in/
वह भी एक दौर था, यह भी एक दौर है...
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग में आकर बहुत सुख मिला , दुःख तो इस बात का है कि , मैंने पहले क्यों नहीं आ पाया .
ReplyDeleteये पोस्ट बहुत कुछ कह गयी ...शायद अंतिम पंक्ति पर कभी कोई नज़्म बन जाए मुझसे...
अब आते रहूँगा .
विजय
बढ़िया शब्दचित्र
ReplyDeleteआप इसी धरती की बात कर रहें हैं ? और माते को तरसा क्यों रही हैं आप इतना ....आप को भले जमाने से शिकायत न् हो माते को आपसे और मुझे आप दोनों से है ...
ReplyDelete...
मेरी कौन सुनता है
आप दोनों के होते हुए मैं अनाथ जैसा फील क्यों करता हूँ ?
कभी अगर बिना शब्द का कुछ आप तक पहुंचे तो ध्यान जरूर देना !