Sunday, March 11, 2012

एक मोड़ पर रखा इंतजार...


रास्ते नए नहीं थे. रास्तों के दोनों ओर मौसम ठाठ से सजा था...बीच बीच में फूल चुआता..और कभी मस्ती में शाखें और पत्तियां लहराता. वो लड़की उस शहर में भागती फिरती थी. उन रास्तों पर दूर तक दौड़ कर जाती, फिर वापस लौट आती. किसी मोड़ पे देर तक ठहरी रहती, फिर बैठ जाती...एकटक एक ओर देखती जाती. उसकी आँखों से एक-एक कर सारी नदियाँ बह निकलतीं. लोग उसे रूककर देखते तो वो मुंह घुमा लेती. अचानक वो जोर-जोर से रोने लगती और वो जगह छोड़कर भाग जाती...मै उसे अक्सर देखती थी. उसे चलने में कुछ तकलीफ थी शायद. शुरू-शुरू में उसके कपडे-वपड़े ठीक ठाक से लगते थे और वो किसी भले घर की लड़की लगती. मुझे लगा कि भले घर की लड़की है, शायद उदास है किसी बात पर. ( हालाँकि 'भला घर' मेरे लिए हमेशा से एक प्रश्न चिन्ह ही रहा है ) अपनी उदासी को सड़कों के सीने पर मल रही है. धीरे-धीरे उसकी हालत खस्ता होती दिखी...उसके कपडे भी अस्त-व्यस्त और सिसकियाँ लगभग चीखों में बदलने को थीं.
दरयाफ्त करने पर पता चला कि कोई पागल है...किसी से बात नहीं करती. अगर कोई मदद करना चाहे तो और चिल्लाकर रोने लगती है. खाना भी नहीं लेती, फेंक देती है. पैसे भी नहीं लेती. मै उसे दूर से देखती रही. जाने क्यों हिम्मत नहीं हुई उसके करीब जाने कि कहीं मेरे जाने को भी फेंक दिया तो...? मन में न जाने कितने सवाल जागे...कौन होगी वो लड़की...क्यों ऐसे भटकती फिर रही है. क्यों किसी की मदद नहीं लेती? 
एक रोज गाड़ी के सामने आ गयी. जोर से ब्रेक न लगाया होता तो गयी थी वो तो...बेहोश थी. उसे अस्पताल ले गयी.
पता चला भूख से बेहोश हुई है. न जाने कब से उसने कुछ नहीं खाया. होश आया तो अस्पताल के कमरे की सूनी छत को ताकने लगी. बड़ी हिम्मत करके मैंने अपनी आवाज में ढेर सारा प्यार भरकर पूछा, नाम क्या है तुम्हारा? वो चुप ही रही.
मैंने दोबारा नहीं पूछा. सिस्टर ने कुछ फल दिए खाने को तो उसने खा लिए. शायद भूख ज्यादा थी या फिर थोडा भरोसा भी.
फिर वो उठकर जाने लगी.
मैंने पूछा, 'कहाँ जाना है?'
कुछ नहीं बोली वो.
डॉक्टर ने उसे प्यार से समझाया, 'अभी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है. ठीक हो जाना तो जाना.'
वो अच्छे बच्चों की तरह बात मान गयी.
मै रोज जाती उसे देखने और उसके लिए कुछ फल ले जाती. अस्पताल की देखरेख में वो निखर रही थी.
एक दिन मैंने देखा कि वो खिड़की के पार लगे फूलों में से एक फूल तोड़कर अपने बालों में लगाये है और बहुत खुश है. मैंने उससे पूछा 'क्या बात है, आज बहुत खुश हो?'
उसने पहली बार कुछ कहा, 'आज जन्मदिन है...'
'अच्छा....' मैं बहुत खुश हुई. मेरा बड़ा मन हुआ कि उसे बाँहों में भरकर खूब प्यार करूँ. मैंने बाहें बढ़ा दीं. वो उनमे समा गयी और रोने लगी....मै उसकी पीठ पर हाथ फिराती रही...ऐसे मौकों पर शब्द सबसे बड़े अवरोधक का काम करते हैं मै जानती थी. मैंने कुछ नहीं कहा बस उसकी पीठ सहलाती रही...उसकी आँखें बहती रहीं...हिचकियाँ टूटती रहीं...वो रोते-रोते थक गयी तो सर घुमाकर लेट गयी, मैंने कुछ भी नहीं पूछा.
शाम को लौटी तो एक केक और कुछ फूल थे मेरे हाथ में. जाने क्यों उससे एक अनकहा नाता सा बन गया था और मै खुद को उसके बहुत करीब पाने लगी थी.
अस्पताल पहुंची तो पता चला वो जा चुकी है, बिना किसी को कुछ भी बताये...
फूल मेरी तरह मुरझा गए और केक सहमकर डिक्की में चुपचाप रख गया. उदास मन से मैं लौटने लगी. मैंने महसूस किया कि मेरे भी गालों पर कुछ रेंग रहा है...आंसूनुमा . तभी एक मोड़ पर वो मुझे दिखी. मै खुश हो गयी.
गाड़ी एक किनारे लगायी और धीरे-धीरे उसके पास पहुंची.
वो मुझे देखकर मुस्कुरा दी.
मैंने उससे लाड में भरकर पुछा, 'तुम बिना बताये क्यों चली आयीं? मै कितना परेशान हुई पता है?'
उसने कोई जवाब नहीं दिया.
'सुनो मै तुम्हारे लिए केक लायी हूँ. चलो तुम्हारा जन्मदिन मानते हैं.'
वो शरमा गयी. 'मेरा जन्मदिन नहीं है.' उसने कहा.
'फिर...? सुबह तो तुमने कहा था.'
'उनका है...' उसने शरमाते हुए कहा और गर्दन झुका ली.
'उनका किनका?'
अब चौंकने की बारी मेरी थी.
'वही...जिनके लिए मैंने घर छोड़ा था...जिन्हें मैं प्यार करती हूँ.'
'ओह! तो वो हैं कहाँ?'
सवालों को मौका मिले तो वो जोंक की तरह चिपकने लगते हैं.
वो फिर खामोश हो गयी. उदास. गुमसुम.
फिर से रास्तों की ओर ताकने लगी..
मै भी आसानी से छोड़ने वालों में से तो हूँ नहीं. मेरे भीतर के अहंकार ने सर उठाया. अहंकार...हाँ, हाल ही में एक दोस्त ने बताया था कि हमेशा किसी की मदद करने को उत्सुक रहना भी एक तरह का अहंकार ही होता है...जो भी हो मुझे इस लड़की की मदद करनी थी...
मैंने अब कोई सवाल नहीं किया.
उससे कहा, 'अच्छा चलो, तुम्हारे उनका जन्मदिन मनाते हैं.'
वो मान गयी...उसने केक काटा और गाया, 'हैप्पी बर्थडे डियर पंकज...' और जोर से रो पड़ी.
मैंने उसे गले लगाया. वो न जाने कितनी देर तक रोती रही. मानो उम्र भर का रोना हो. मैं भी रो पड़ी उसके साथ.
वो एक भरी-पूरी चलती हुई सड़क थी. ये शहर मेरा जाना हुआ है. मेरी इन हरकतों की खबर घर पहुँचने का पूरा खतरा था फिर भी मैंने परवाह नहीं की. उसके साथ सड़क के किनारे बैठी रही. हाथों में हाथ लिए. मुझे इस वक़्त दुनिया की हर शय से शिकायत हो उठी थी. क्या फायदा है कायनात की इस सुन्दरता का जब एक प्रेम इस तरह मुरझा रहा हो. क्या करूँ मैं इन चाँद सितारों का, खूबसूरत रास्तों का, गुलमोहर के पेड़ का, नदी के किनारों का....सब बेमानी...
अभी तक बस इतना सुराग मिला था कि इसका कोई प्रेमी है, जिसका नाम पंकज है. बस. अरे हाँ, उसका आज जन्मदिन है ये भी. मैंने लाये हुए फूलों में से एक फूल उसके बालों में लगाया और एक अपने बालों में. हमने केक एक दूसरे को खिलाया. फिर हम पैदल सड़कें नापने निकल पड़े.
थोड़ी दूर जाकर वो ठिठक गयी और वापस लौट पड़ी...
मैंने कहा 'क्या हुआ?'
उसने कहा, 'ज्यादा दूर नहीं जाएगी...उसने यहीं मिलने का वादा किया था. यहीं इसी मोड़ पर. कहा था कि कोने वाले पलाश के पेड़ के नीचे मिलना. मैं वहां से दूर नहीं जा सकती. वो आएगा. वो आएगा...वो आएगा...' वो फिर से रोने लगी.
'हाँ, वो आएगा. ज़रूर आएगा. क्यों नहीं आएगा. तुम इतनी प्यारी हो, तुम्हें छोड़कर कौन जा सकता है भला?'
मैंने उसे सँभालने की कोशिश की.
मोबाईल चीख-चीख के शांत हो चुका था. मुझे पता था कि मेरे घर पर भी हंगामा होगा आज.
सर पर खिले पलाश देखकर रोने का जी हो आया. सुना था कि पलाश की शाखों पर फूलों के साथ साथ प्रेमियों के मिलने का वादा भी खिलता है. लेकिन फ़िलहाल पलाश का यूँ खिला होना भी कुछ काम नहीं आ रहा था सिवाय इसके की वो हम दोनों के सर पर बीच बीच में कुछ फूल गिरा देता था. वो फूल जिन्हें तेज रफ़्तार गाड़ियाँ बेरहमी से कुचलती भी जा रही थीं. कुछ सड़क किनारे पड़े पड़े बेवजह मुस्कुरा रहे थे. मैंने पहली बार पलाशों से मुंह फेरा.
'उसका कोई नंबर है?' उससे पूछा?
उसने 'ना' में सर हिलाया.
'तुम्हारा नाम क्या है अच्छा?'
उसने 'ना' में सर हिलाया.
'तुम्हारा घर कहाँ है...कहाँ की हो?'
मै उसका ठिकाना जानना चाहती थी कि सुरछित हाथों में सौंप सकूं. महिला आश्रम ठीक जगह नहीं है इस प्यारी सी लड़की के लिए जो अपने प्रेम से बिछड़ गयी है और उसी मोड़ पर बैठी उसका इंतजार कर रही है.
लेकिन उसके पास मेरे किसी सवाल का जवाब नहीं था. वो बस उन रास्तों को ताक रही थी, जिन पर चल कर उसके प्रेमी पंकज को आना था. अब कैसे ढूँढूं पंकज को जिसकी प्रेमिका का नाम तक पता नहीं. कैसे छोड़ दूं उसे भटकने के लिए. जी चाहा चिल्ला चिल्ला के गूंजा दूं धरती को पंकज....पंकज...पंकज....कहीं से कोई आये तो सही, ले जाये अपनी मुरझाती मोहब्बत को. सजा ले अपनी दुनिया. पर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया. रात अपना आँचल पसार रही थी...मैंने उससे बहुत कहा कि रात भर वो मेरे घर चले. सुबह हम पंकज के पास जायेंगे. लेकिन वो किसी तरह मानने को राजी न हुई. आखिर रात कि ड्यूटी पर मुस्तैद सिपाही को पांच सौ रूपये देकर मैंने उसकी सुरछा की गारंटी ली और अन्ना के आन्दोलन को मुंह चिढाया. उसे अपना शॉल उढ़ाया और पलाश के पेड़ से कहा कि उसका ख्याल रखे.
रास्ते भर उसके बारे में सोचती रही. किसी अच्छे घर की लड़की लगती है. किसी से प्रेम कर बैठी. 'अच्छे घर' हुंह...खुद पर ही हंस पड़ी.
वो लड़की जो प्रेमी ने जहाँ मिलने का वादा किया, वहां से हिलने को तैयार नहीं है और वो प्रेमी कहाँ है? वो लड़की तबसे उन्हीं सड़कों पर भटक रही है. क्यों न आया होगा उसका प्रेमी? पहला ख्याल तो यही आया कि प्रेमी होते ही दगाबाज हैं...कम्बख्त...फिर लगा कि कहीं उसका एक्सीडेंट न हो गया हो...फिर ये भी लगने लगा कि जिन दिनों वो अस्पताल में थी, तब वो आकर चला न गया हो...कहीं दोनों एक-दूसरे को ढूंढ न रहे हों...अख़बार में खबर छपवाना ठीक होगा क्या? लड़की का तो नाम भी नहीं पता. खबर में क्या छपेगा कि 'घर से भागी लड़की अपने प्रेमी की तलाश में दर-दर भटक रही है....' नहीं अख़बार वालों और पुलिसवालों से तो दूर ही रहना होगा. तो किया क्या जाये...यही सोचते हुए मेरा घर आ गया...जहाँ देर से आने और फोन न उठाने के कारण सबकी त्योरियां चढ़ीं थी.
रात भर मै उसके बारे में सोचती रही. कितना गहन प्रेम है उस लड़की का कि उसे कुछ भी याद नहीं सिवाय इसके कि उसके प्रेमी ने उस मोड़ पर मिलने का वादा किया था. यहाँ तक कि अपना नाम भी याद नहीं. क्यों नहीं आया होगा उसका प्रेमी. कहीं डर तो न गया होगा ज़माने से? मेरा अनुभव तो यही कहता है कि प्रेम करने में लड़के माहिर होते हैं और निभाने में लड़कियां. लेकिन मै मन ही मन मनाती हूँ, हर बार कि मेरा अनुभव गलत साबित हो. सुबह उठते ही सबसे पहले उसके पास जाऊंगी. चाहे ऑफिस से छुट्टी ही क्यों न लेनी पड़े कल उसका कुछ तो इंतजाम करना ही होगा. कम से कम उसके रहने का. ऐसे सड़क पर छोड़ देना ठीक नहीं है. खुद पर ग्लानि हुई कि पांच सौ रूपये देकर उसे अंजान पुलिसवाले के हवाले कर आई. जी चाहा आधी रात को जाकर उसे उठा लाऊँ. जैसे-तैसे रात कटी, बच्चो को स्कूल भेजा और खुद निकल पड़ी उस अनजान दोस्त की ओर.
वहां जाकर देखा कि भीड़ लगी है. रात कोई गाड़ी उसे कुचल गयी...पुलिस उसका शव पोस्टमार्टम के लिए ले जा रही थी. मैंने देखा उसके बालों में लगा फूल अब भी ताजा था...मैं भारी क़दमों से लौट रही थी...मै उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी सिवाय इसके कि वो किसी पंकज कि प्रेमिका थी...वो पंकज जिसके आने का वादा उस पलाश के पेड़ के नीचे रखा था...पंकज कहाँ होगा इस वक़्त ?

( आज जनसत्ता में प्रकाशित )

10 comments:

  1. दिल में कहीं गहरे उतर गयी उस भले घर की लड़की के प्रेम की शिद्दत .आपकी इस कहानी ने रुला दिया ...

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  2. प्रतिभाजी, पोस्ट पढ़कर हमारी जान तो नहीं गई, लेकिन क्या वाकई बच गयी? बेहद मार्मिक.

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  3. प्रतिभाजी, पोस्ट पढ़कर हमारी जान तो नहीं गई, लेकिन क्या वाकई बच गयी? बेहद मार्मिक.

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  4. प्रतीक्षारत है वह प्रेमी, आज भी वहीं पर..

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  5. आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लग ...रचना के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास .अनुपम अद्भत और न जाने क्या क्या ...

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  6. bhale ghar ki ladki aur intzaar...behad bhaavpoorn.

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  7. Mausi..kya sach me wo ladki mar gayi ??
    are sari duniya jinda hai kisee ne bachaya kyon nahi ??

    aur..
    प्रेम करने में लड़के माहिर होते हैं और निभाने में लड़कियां.
    ..kuchh apvaad bhi hote hain na maasi ??

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  8. आनंद, यकीनन अपवाद होते हैं तभी तो दुनिया कायम है...और तुमने ध्यान दिया कि लड़की के बालों में लगा फूल मुरझाया नहीं था...

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  9. ममता जी, शुक्रिया आपका!

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