( मानव कौल की यह कहानी जब पढ़ी थी तो ख़याल आया था की सहज होना इतना मुश्किल भी तो नहीं. मानव की अनुमति से इसे अपने ब्लॉग पर सहेज रही हूँ )
'तुम अगर कहो तो मैं तुम्हें एक बार और
प्यार करने की कोशिश करूंगा,
फिर से,शुरु से।
तुम्हें वो गाहे-बगाहे आँखों के मिलने की
टीस भी दूंगा।
तुम्हारा पीछा करते हुए,
तुम्हें गली के किसी कोने में रोकूंगा,
और कुछ कह नहीं पाऊंगा
रोज़ मैं तुम्हें अपना एक झूठा सपना सुनाऊँगा
पर इस बार
'सपना सच्चा था'- की झूठी कसम नहीं खाऊँगा
अग़र तुम मुझे एक मौक़ा ओर दो...
तो मैं तुमसे...
सीधे सच नहीं कहूंगा,
और थोड़ी-थोड़ी झूठ की चाशनी,
तुम्हें चटाता रहूँगा।
'बस रोक दो मुझे ये नहीं सुनना है।'
उसने कुर्सी पर से उठते हुए कहा, वो कुछ सुनना चाहती थी ये ज़िद्द उसी की थी।मैं चुप हो गया।वो कमरे में धूमती रही,उसे अपना होना उस कमरे में बहुत ज़्यादा लग रहा था,वो किसी कोने की तलाश कर रही थी जिसमें वो समा जाए, इस घर में रखी वस्तुओं में गुम हो जाए, इस घर का एक हिस्सा बन जाए, जैसे वो कुर्सी, जिसपर से वो अभी-अभी उठ गयी थी।
'क्या हुआ?'
मैंने अपनी आवाज़ बदलते हुए कहा, उस आवाज़ में नहीं जिसमें मैं अभी-अभी अपनी कविता सुना रहा था।
'तुम्हारी कविता से मुझे आजकल बदबू आती है। किसकी?... मैं ये नहीं जानती।'
उसे शायद मेरे छोटे से कमरे में एक कोना मिल गया था, या कोई चीज़ जिसे पकड़कर वो सहज हो गई थी और उसने ये कह देया था।... पर मेरे लिए वो कुर्सी नहीं हुई थी, वो मुझे अभी भी घर में लाई गई एक नई चीज़ की तरह लगती थी।मेरे घर की हर चीज़ के साथ 'पुराना' या 'फैला हुआ' शब्द जाता है, पर वो हमेशा नई लगती है, नई...धुली हुई, साफ सी।ऎसा नहीं है कि मेरे घर में कोई नयी चीज़ नहीं है, पर वो कुछ ही समय में इस घर का हिस्सा हो जाती है। यहाँ तक की, नई लाई हुई किताब भी, पढ़ते-पढ़्ते पुरानी पढ़ी हुई किताबों में शामिल हो जाती है।पर वो पिछले एक साल से यहाँ आते रहने के बाद भी, पढ़े जाने के बाद भी, पुरानी नहीं हुई थी... , जिसे मैं भी पूरे अपने घर के साथ पुराना करने में लगा हुआ था।
'मेरे लिखे में, तुम्हारे होने की तलाश का, मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ।'
इस बात को मैं बहुत देर से अपने भीतर दौहरा रहा था, फिर एक लेखक की सी गंभीरता लिए मैंने इसे बोल दिया।
रात बहुत हो चुकी थी, उसे घर छोड़ने का आलस,उसके होने के सुख को हमेशा कम कर देता था।वो रात में,कभी भी मेरे घर में सोती नहीं थी, वो हमेशा चली जाती थी। बहुत पूछने पर उसने कहा था कि उसे सिर्फ अपने बिस्तर पर ही नींद आती है।उसने मेरी बात पर चुप्पी साध ली थी, कोने में जल रहे एक मात्र टेबिल लेंप की धीमी रोशनी में भी वो साफ नज़र आ रही थी, पूरी वो नहीं,बस उसका उजला चहरा, लम्बें सफेद हाथ। अचानक मैं अबाबील नाम की एक चिड़िया के बारे में सोचने लगा, जिसे मैंने उत्तरांचल में चौकोड़ी नाम के एक गांव में देखा था। वो उस गांव की छोटी-छोटी दुकानों में अपना घोसला बनाती थी,छोटी सी बहुत खूबसूरत। शुरु शुरु में मुझे वो उन अधेरी,ठंड़ी दुकानों के अंदर बैठी, अजीब सी लगती थी,मानो किसी बूढ़े थके, झुर्रीदार चहरे पर किसी ने रंगबिरंगी चमकदार बिंदी लगा दी हो। पर बाद बाद में मैं उन दुकानों में सिर्फ इसलिए जाता था कि उसे देख सकूं, जो उसी दुकान का एक खुबसूरत हिस्सा लगती थी।
'मुझे पता है ये केवल कल्पना मात्र है, उससे ज्यादा कुछ नहीं, पर मुझे लगता है कि तुम मुझे धोखा दे रहे हो, नहीं धोखा नहीं कुछ और। कल रात जब मैं तुम्हारे साथ सो रहे थे तो मुझे लगा कि तुम किसी और के बारे में सोच रहे हो,तुम मेरे चहरे को छू रहे थे पर वंहा किसी और को देख रहे थे।उस वक्त मुझॆ लगा, ये सब मेरी इन्सिक्योरटीज़ है और कुछ नहीं। पर अभी ये कविता सुनते हुए मुझे वो बात फिर से याद आ गई।मैं इसका कोई जवाब नहीं चाहती हूँ, मैं बस तुम्हें ये बताना चाहती हूँ।'
रात में उसके सारे शब्द अपनी गति से कुछ धीमे और भारी लग रहे थे। मुझे लगा मैं उन्हें सुन नहीं रहा हूँ, बल्कि पढ़ रहा हूँ।
'ये तुम्हारी इन्सिक्योरटीज़ नहीं हैं, अगर तुम इसे धोखा मानती हो तो मैं तुम्हें सच में धोखा दे रहा हूँ। अभी भी जब तुम उस कोने में जाकर खड़ी हो गई थी,तो मैं किसी और के बारे में सोच रहा था।'
अब मैं उसे ये नहीं कह पाया कि मैं उस वक्त, असल में अबाबील के बारे में सोच रहा था, पता नहीं क्यों, पर शायद मुझे कह देना चाहिए था।
'मैं एक बात और पूछना चाहती हूँ, कि जब तुम मेरे साथ होते हो तो कितनी देर मेरे साथ रहते हो।''
'पूरे समय।'
'झूठ।'
'सच।'
'झूठ बोल रहे हो तुम।'
'देखो असल में...'
'मुझे कुछ नहीं सुनना... मैं जा रही हूँ...।'
'मैं तुम्हें छोड़ने चलता हूँ... रुको।'
'कोई ज़रुरत नहीं है...।'
और वो चली गई, खाली कमरे में मैं अपनी आधी सुनाई हुई कविता,और अपनी आधी बात कह पाने का गुस्सा लिए बैठा रहा।सोचा कम से कम वो आधी कविता अपने घर की पुरानी, बिखरी पड़ी चीज़ो को ही सुना दूं,पर हिम्मत नहीं हुई।उसे घर, आज घर नहीं छोड़ा इसलिए शायद वो यहाँ थी का सुख अभी तक मेरे पास था। मैं क्या सच में कल रात उसके साथ सोते हुए किसी और के बारे में सोच रहा था, किसके बारे में?
हाँ याद आया, मैं जब उसके चहरे पे अपनी उंगलियां फेर रहा था... तो अचानक मुझे वो सुबह याद हो आई, जब मैं अपनी माँ को जलाने के बाद, राख से उनकी अस्थीयाँ बटोर रहा था। मैंने जब तुम्हारी नाक को छुआ तो मुझे वो, माँ की एकमात्र हड़्डी लगी जिसे उस राख में से मैंने ढूढा़ था। उसके बाद मैं काफी देर तक राख के एक कोने में यू ही हाथ घुमाता रहा,हड्डीयाँ ढूढ़ने का झूठा अभिनय करता हुआ, क्योंकि मैं माँ की और हड़्ड़ीयों को नहीं छूना चाहता था... उन्हें छूते ही मेरे मन में तुरंत ये ख्याल दोड़ने लगता कि वो उनके शरीर के किस हिससे की है... ये उनकी मौत से भी ज़्यादा भयानक था।फिर मैं तुम्हारे बारे में सोचने लगा कि जब तुम्हें जलाने के बाद मुझे अगर तुम्हारी अस्थीयों को ढूढ़ना पड़ा तो... और इस विचार से मैंने अपना हाथ तुम्हारी पीढ़ पर ले गया... लगा कि तुम जलाई जा चुकी हो,तुम्हारा ये शरीर राख है और मैं उस राख में से तुम्हारी हड़्ड़ीयाँ टटोल रहा हूँ। तुम अचानक हंसने लगी थी, पर मैं शांत था क्योंकि मैं सच में तुम्हारी हड़डीयाँ टटोल रहा था।
वो सच कहती है मैं हर वक्त लगभग उसे ही देखते हुए कुछ और देखता होता हूँ...। मैंने सोचा टेबल लेंप बंद कर दूं, पर उसके बंद करते ही कमरे में इतना अंधेरा हो गया कि मुझसे सहन ही नहीं हुआ... मैंने उसे तुरंत जला दिया।नींद की आदत उसके कारण एसी पड़ गई थी कि रात के कुछ छोटे-छोटे रिचुअल्स बन गये थे, जिन्हें पूरा किए बिना नींद ही नहीं आती थी।जैसे उसे घर छोड़ने के बाद अकेले वापिस आते वक्त, उसके रहने के सुख का दुख ढूढ़ना।वापिस घर आते ही उसे काग़ज़ पे उतार लेना... वैसे यह अजीब है, जब मैं अपने सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा था तो जीवन की खूबसूरती के बारे में लिख रहा था, और जब भी घर में सुख छलक जाता है तब मैं पीड़ा लिखने का दुख बटोर रहा होता हूँ। शायद यही कारण है कि जब वो घर में होती है तो मैं उसके बारे में लिखना या सोचना ज़्यादा पसंद करता हूँ, जो उसके बदले यहाँ हो सकती थी।कल उसे छोड़ने के बाद ही मैंने ये कविता लिखी थी जिसे वो पूरा नहीं सुन पाई।बाक़ी रिचुअल्स में वो संगीत तुरंत आकर लगा देना जिसे उसके रहते सुनने की इच्छा थी।घर में धुसते ही शरीर से कपड़े और उसके सामने एक तरह का आदमी बने रहने के सारे कवच और कुंड़ल उतार फैकना।नींद के साथ उस सीमा तक खेलना जब तक कि वो एक ही झटके में शय और मात ना दे दे, और फिर चाय पीना, ब्रश करना या कभी कभी नहा लेना.... अलग।
अब ना उसे छोड़ने गया और ना ही रात का वो पहर शुरु हुआ है जहां से मैं अपने रिचुअल्स शुरु कर सकूँ। अचानक मैं फिर से अबाबील के बारे में सोचने लगा, उसी गांव (चौकोड़ी) के एक आदमी ने मुझे बताया था कि इस चिड़िया का ज़िक्र कुरान में भी हुआ है, और ये उड़ते-उड़ते हवा में अपने मूहँ से धूल कण जमा करती है, जिसे थूक-थूक कर वो अपना घोसला बनाती है।मैंने कुछ संगीत लगाने का सोचा पर फिर तय किया कि अभी तो रात जवान है.. पहले चाय बना लेता हूँ,मैं अपने किचिन में चाय बनाने धुसा ही था कि मुझे डोर बेल सुनाई दी, मैंने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया। वो बाहर खड़ी थी। मैं कुछ कहता उससे पहले ही वो तेज़ कदमों से चलती हुई भीतर आ गई।
'तुम मुझे मनाने नहीं आ सकते थे, तुम्हें पता है मैं अकेली घर नहीं जा सकती हूँ, मुझे डर लगता है।' मुझे सच में ये बात नहीं पता थी। मुझे उसका यह चले जाने वाला रुप भी नहीं पता था सो उसका वापिस आ जाना भी मेरे लिए उतना ही नया था जितना उसका चले जाना। दोनों ही परिस्थिती में कैसे व्यवहार करना चाहिए इसका मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। मैं कुछ देर तक चुपचाप ही बैठा रहा। फिर अपने सामान्य व्यवहार के एकदम विपरीत, मैं उसके बगल में जाकर बैठ गया।
आई एम सॉरी... माफ कर दो मुझे..।’
इस बात में जितना सत्य था उतनी चतुरता भी थी, पर इसमें मनऊवल जैसी कोई गंध नहीं थी। पर उसने शायद इन शब्दों के बीच में कुछ सूंघ लिया और वो मान गई।वो मेरी तरफ पलटी और मुस्कुरा दी।उसने अपने हाथ मेरे बालों में फसा लिए, और उनके साथ खेलने लगी।
'मैं जब पहली बार तुमसे मिली थी, याद हैं तुम्हें....मुझे लगा था कि तुम एक हारे हुए आदमी हो जो सबसे नाराज़ रहता हैं। क्या उम्र बताई थी तुमने उस वक्त अपनी?...पेत्तालीस साल... हे ना!'
'वो सिर्फ एक साल पुरानी बात है... i was 43 last year...'
'ठीक है 44... एक साल इधर-उधर होने से क्या फ़र्क पड़ता है।'
वो हंसने लगी थी, मैं जानता था वो मुझे उकसा रही है। कोई और वक्त होता तो शायद मैं जवाब नहीं देता पर मैं जवाब देना चाहता था क्योंकि मैं वो हारे हुए आदमी वाली बात को टालना चाहता था।उसके हाथ मेरे बालों पर से हट गए थे।
'चालीस के बाद,एक साल का भी इधर-उधर होना बहुत माईने रखता है।'
मैं एक मुस्कान को दबाए बोल गया था।
'हाँ.. मुझॆ महसूस भी होता है।'
ये कहते ही उसकी हंसी का एक ठहाका पूरे कमरे में गूंजने लगा।मैं चुप रहा, मानो मुझे ये joke समझ में ही नहीं आया हो।वो थोड़ी देर में शांत हुई...उसके हाथ वापिस मेरे बालों की तलाशी लेने लगे... हाँ मुझे अब उसका बाल सहलाना, अपने बालों की तलाशी ही लग रहा था।
'मैं जब छोटी थी, उस वक्त हमारे घर में बहुत महफ़िले जमा होती थी...।’
उसने अचानक एक दुसरा सुर पकड़ लिया... मैंने इस सुर को बहुत कम ही सुना है खासकर उसके मुहँ से.... वो मेरे हाथों को भी टटोल रही थी... मानो वो सारा कुछ, जो वो बोल रही है... मेरे ही हाथों मे लिखा हो...
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aisa lag raha tha...ki ye chalta hi rahe aur mai padhta hi rahu...mujhe bahuuuuuuuuttttttttttttttttt accha laga
ReplyDeleteयदि आप सहज होना चाहें, आपका परिवेश असहज हो जाता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है। क्या बात है.
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