रास्तों को बांधकर पीछे वाली सीट पर डाल दिया. कानों में कुछ अपनी पसंद के सुर पहने और उछलती-कूदती सी जा पहुंची उसी किनारे पर. वही किनारा, जहां मुझे चैन मिलता है. हां जी, गोमती नदी का किनारा. कलकल की कोई आवाज नहीं, पानी में कोई धार नहीं, बस कि धीरे-धीरे बहता पानी. मानो ऊब गया हो बहते-बहते. अक्सर मुझे नदी उदास सी लगती है. मैं फिर भी जाती हूं उसके पास. कि जिसे आप प्यार करते हैं जरूरी तो नहीं उसके पास तभी जाएं जब वो खुश हो. मैं उसे पूरे दिल से गले लगाना चाहती हूं. लेकिन बस पानी में पांव डालकर बैठ जाती हूं. गुलजार साब का गीत कान में बजता है, 'सीली हवा छू गई...सीला बदन छिल गया...नीली नदी के परे गीला सा चांद खिल गया...' जैसे-जैसे शाम गुजर रही है शहर जाग रहा है और चांद उदास नदी के आंचल में छुपने को बेताब है. मानो वो भी कहता हो कि अपार्टमेंट्स की छत पर टंगे रहने में कोई मजा नहीं आता. आंगन में खिलने की बात ही कुछ और थी. कम्बख्त इसे भी ना नॉस्टैल्जिया की बीमारी है. नदी मैं और चांद तीनों हंस देते हैं. नदी चांद की तरह किसी से कोई शिकायत नहीं करती.
शहरों में उगते जंगलों ने नदियों को भी कितना उपेक्षित कर दिया है. ईंट पत्थरों की खूबसूरती और तेज रोशनियों के बीच दौड़ती भागती एसी गाडिय़ों में बैठे लोगों को तो ख्याल भी न आता होगा कि यहीं उनके बेहद करीब एक नदी है. बस हाथ बढ़ाकर उसे छुआ जा सकता है. शायद इसीलिए जब भी मैं गोमती की ओर बढ़ती हूं तो अक्सर अकेली ही होती हूं. और लोग मुझे हैरत से देखते हैं. सिक्योरिटी वाला दौड़कर पास आता है. उसे डर है कि कहीं... उसका डर वाजिब है. दर्द से भरे दामन को संभाल न पाने वाले तमाम मायूस प्रेमियों को नदियों का ही ठौर मिला है. गोमती ने भी न जाने कितने रा$ज, कितनी मोहब्बत की दास्तानें, कितने धड़कते दिल अपने भीतर संभाले हुए हैं. प्रशासन की सतर्कता ने जाल लगवा दिये, रेलिंग ऊंची करवा दी. अब पुलों से गुजरो तो लगता है जेल से गुजर रहे हैं. नदी दिखती ही नहीं. हमने उसे छुपा दिया है. उसके आसपास न जाने क्या-क्या उगा लिया है. पूरे शहर में गोमती खामोशी से चुपचाप पड़ी रहती है. मानो थक गई हो. लेकिन उसके पास इस तरह पड़े रहने के सिवा कोई चारा ही न हो. जैसे घरों में अक्सर बुजुर्ग पड़े रहते हैं. उनके पास चुपचाप एक कोना पकड़े रहने और सबकी खुशी में खुश होने के सिवा कोई विकल्प भी कहां होता है.
सुख हमारी हथेलियों पर रखा होता है और अक्सर हम अनजाने उसे ढूंढते हुए ही हथेलियां उलट देते हैं. वो गिर जाता है. खो जाता है. हम ढूंढते रहते हैं. ताउम्र. हमने नदियों को नहीं खोया, खुद को खोया. ये कोई पर्यावरण प्रेम नहीं, स्वार्थ है. हम सब नदी ही तो हैं. बहते जा रहे हैं. अपने भीतर की ठंडक को, गहराई को, उत्साह को, निर्मल अहसास को न जाने कैसे और क्यों हमने खो दिया. जीवन को मरुस्थल बना लिया. जीवन के कुछ लक्ष्य थे, कुछ सपने. कुछ कहे, कुछ अनकहे. एक दौड़ थी और ढेर सारे रास्ते. उन रास्तों पर दौड़ते हुए अपने ही आप से कब हाथ छूटा पता ही नहीं चला. नदी में जब चेहरा देखा तो लगा ये कौन है?
सप्ताह में एक दिन छुट्टी का होता है और उस दिन मेरे भीतर की नदी मेरे शहर की नदी से मिलने को व्याकुल हो उठती है. किल्लोल करता मन उसका आंचल थामने को उत्सुक हो उठता है और कदम बेसाख्ता उधर चल पड़ते हैं. वो मुझे देख मुस्कुराती है और मैं उसे देख. नदी के ठंडे पानी में पांव डाले जिस वक्त बैठी होती हूं ना, सारी दुनिया न जाने कहां छूट जाती है. बस वही एक पल जीवन का हासिल होता है...किसी को ये पागलपन लगे तो लगे...
बहुत सुन्दर लेख ...
ReplyDeleteजुनून ही तो जिंदगी है ...
सचमुच हम सब नदी ही हैं, जीवन भर बहते रहते हैं, इस छोर से उस छोर तक। उम्दा प्रस्तुति।
ReplyDeleteजीवन को खंगालने के लिये पागलपन भी आवश्यक है।
ReplyDeletesunder...
ReplyDeleteबिलकुल सलामत रहे और गोमती की तरह शब्दों की बाढ़ में डूबता रहे...
ReplyDeletebadhiya....salamat rahe aapka yah pagalpan.
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