Monday, August 16, 2010

मानव का मन


मानव कौल मूलत: नाटककार हैं. लेकिन वे लेखक भी हैं. कहानी, कविता, नाटक विधा कोई भी हो जिंदगी के पेचोखम सुलझते से लगते हैं उनके यहां. उन्हें पढऩा जीवन को पढऩे सरीखा है. हालांकि वे खुद हमेशा कुछ न कुछ खोजते हुए से मालूम होते हैं. मानव जितना बोलते हैं, उनका काम उससे कहीं ज्यादा बोलता है. उनके नाटक न जाने कितने रूपों में स्मृतियों में कैद हो जाते हैं. उनकी कविताओं में कहीं मन खुलता है तो कहीं उलझता है. उनकी कहानियां पढ़ते हुए महसूस होता है कि घुटन भरे माहौल में थोड़ी सी हवा और रोशनी मिल गई हो जैसे. मेरा उनसे परिचय बहुत पुराना नहीं है लेकिन उन्हें जितना पढ़ा और जाना ये परिचय बहुत नया भी नहीं लगता. फिलहाल मानव की ये कविता- प्रतिभा

मेरे हाथों की रेखाएं,
तुम्हारे होने की गवाही देती हैं
जैसे मेरी मस्तिष्क रेखा....
मेरी मस्तिष्क रेखा,
तुम्हारे विचार मात्र से,
अनशन पे बैठ जाती है.
और मेरी जीवन रेखा
वो तुम्हारे घर की तरफ मुड़ी हुई है.
मेरी हृदय रेखा
तुम्हारे रहते तो जि़न्दा हैं,
पर तुम्हारे जाते ही धड़कना
बंद कर देती हैं.
बाक़ी जो इधर उधर बिखरी रेखाएं हैं
उनमें कभी मुझे
तुम्हारी आंखें नजऱ आती हैं
तो कभी तुम्हारी तिरछी नाक़.
पंडित मेरे हाथों में,
कभी अपना मनोरंजन तो कभी
अपनी कमाई खोजते हैं,
क्योंकि....
मेरे हाथों की रेखाएं
मेरा भविष्य नहीं बताती
वो तुम्हारा चेहरा बनाती हैं,
पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
मेरे हाथों में नहीं है.

9 comments:

  1. seedhi sachhi kavita pahle kabhi nahi padhi.

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  2. मेरे हाथों की रेखाएं
    मेरा भविष्य नहीं बताती
    वो तुम्हारा चेहरा बनाती हैं,
    पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
    मेरे हाथों में नहीं है.
    जो रेखाएँ भविष्य न बताकर चेहरा बन जाती हैं वे अंततोगत्वा पाने का मार्ग भी बना ही देंगी.
    सुन्दर रचना .. अलग सी

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  3. bahut sundar.... ek tis si hai is rachnaa mein

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  4. बेहतरीन कविता. कितने सारे रंग प्रेम के
    कितने गाढ़े...

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  5. प्रतिभा जी
    प्रतिभा का ख़ज़ाना हैं आप तो ।
    आपके ब्लॉग के विविध रंगों ने मन मोह लिया । बधाई !

    क्योंकि....
    मेरे हाथों की रेखाएं
    मेरा भविष्य नहीं बताती
    वो तुम्हारा चेहरा बनाती हैं


    मानव जी की रचना के लिए उन तक बधाई पहुंचाएं , कृपया ।



    शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा …

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  6. संवेदनशीलता की सरहद तक का यह सफर भला लगा

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  7. Thank you very much hai sabhi logo ko... ki aapko meri rachna pasand aaye... aur bahut bahut dhanyavaad hai pratibh ji ka...
    thanks a ton...
    luv

    Manav
    manavaranya.blogspot.com
    aranyamanav.blogspot.com

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  8. पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
    मेरे हाथों में नहीं है....

    भाग्य !

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  9. ओह!आखिर सब रुक जाता है इसपे आके..भाग्य

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