Tuesday, September 15, 2009

हम देखेंगे - फैज अहमद फैज

हम देखेंगे...
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
हम देखेंगे।
जो लाहे अ$जल में लिखा है
हम देखेंगे
ला$िजम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे .
जब जुल्मो-सितम के कोहे गरां
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महरूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़केगी
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे
जब अर$जे खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले स$फा मरदूदे हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे .
बस नाम रहेगा अल्ला का
जो गायब भी हा$िजर भी
जो ना$िजर भी है मं$जर भी
उठेगा अनलह$क का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्के खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे.

3 comments:

  1. जब जुल्मो-सितम के कोहे गरां
    रूई की तरह उड़ जायेंगे
    हम महरूमों के पांव तले
    ये धरती धड़-धड़ धड़केगी

    वाह क्या बात है इतनी गहरी चोट करने वाली बात तो फैज़ साहब ही कह सकते हैं

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  2. "फैज अहमद फैज" जी की रचना प्रकाशित करने के लिए आभार!

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  3. अपने कालेज के ज़माने से लेकर अब तक जब भी इस नज़्म को पढता सुनता हूँ तो बदन में झुरझुरी सी दौड जाती है...इकबाल बानो जब इसे गातीं थी तो होश गुम हो जाया करते थे...आज इस नज़्म को नेट पर ढूंढते ढूंढते आपके ब्लॉग पर पहुंचा और पिछले दो घंटों से यहीं हूँ...कहीं और जा ही नहीं पाया...आपकी साहित्यिक रूचि बहुत परिष्कृत है पढ़ कर बहुत अच्छा लग रहा है...
    खुश रहें

    नीरज

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