देर तक अपनी आँखें आसमान में टिकाये रहने के बाद थककर एक कप चाय पीना और उसके बाद खाली दीवार में आँखें धंसा देना अजीब से सुख से भरता है. कोई फोन बजता है तो देखती रहती हूँ देर तक फिर फोन के कटने से ठीक पहले ऑटो मैसेज सेंड करती हूँ,’आई एम बिजी राईट नाव, आई विल कॉल यू लेटर.’ उसके बाद फिर उस कबूतर के बारे में सोचने लगती हूँ जो कल गलती से बालकनी में बंद रह गया था. जब मैं दो घंटे बाद घर लौटी तो उसे बालकनी के बंद शीशे से टकराते देखा. मैं दर्द से कराह उठी थी. ओह...यह कैसे हो गया. ये महाशय कहीं छुप के बैठे होंगे. जाने से पहले आदतन मैंने सारी खिड़कियाँ बंद कर दी थीं. पारदर्शी कांच से आसमान एकदम साफ़ दिख रहा था, बाहर के पेड़ भी, पंछी भी. कबूतर को बार-बार लगता आसमान उसका है वो उस तरफ जाने की कोशिश करता और कांच से टकरा जाता. बालकनी का सारा सामान गिरा पड़ा था. मैंने जैसे ही उसे देखा सीधे बालकनी में गयी और खिड़कियाँ खोल दीं. वो इस कदर डर चुका था कि खुली खिडकियों के बावजूद बाहर नहीं निकल पा रहा था. मैं जो उसे निकालना चाह रही थी, वो मुझसे भी डर रहा था.
मैं चुपचाप अंदर चली आई कि शायद मुझसे डरना कम करे तो शायद सहज हो और निकल सके. मेरी आँखें ये सोचकर नम थीं कि इन दो घंटों में उसे कैसा महसूस हुआ होगा. यह सोचते हुए चाय का पानी चढाया था और एक सिसकी सुनी थी अपनी ही. हम सब कबूतर ही तो हैं. कैद कबूतर. बेचारे कबूतर.
जाने भीतर क्या होगा, शायद कुछ मजेदार होगा की जिज्ञासा लिए एक ऐसे जाल में उलझे हुए जिससे निकलने की राह ही नहीं मिलती. आसमान दिखता तो इतने करीब है जैसे हाथ बढ़ाएंगे और छू लेंगे लेकिन जैसे ही आसमान की तरफ बढ़ते हैं न दिखने वाले मजबूत अवरोध से टकराकर गिर जाते हैं. फिर उठते हैं, फिर टकराते हैं. चोट खाते रहते हैं, कोशिश करते रहते हैं. फिर कोशिश करते-करते थक जाते हैं. एक रोज कोई खिड़कियाँ खोलने आता है तो उससे ही डरने लगते हैं और कोशिश करना छोड़ चुके होने के कारण खुली खिड़की के बावजूद आसमान तक पहुँच नहीं पाते.
कबूतर के टूटे हुए पंख मुझे मेरे ही पंख लगे.
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