वादियाँ दूधिया कोहरे से ढंकी थीं
और सूरज नन्ही बदलियों में छुपकर
लुका छिपी का खेल खेल रहा था
बसंत हथेलियों पर
सपनों की कोंपलों खिलने को आतुर थीं
ठंडे रास्तों पर
जीने की ऊष्मा बिखरी हुई थी
जैसे उनींदी आँखों पर
बिखरा होता है इंतज़ार
जब तुम आए
सच में, वक़्त ठहरा हुआ था हथेलियों पर.
भरोसा और उम्मीद
आते हुए प्रेमी के चेहरे पर
प्रेमिकाएं तलाशती हैं भरोसा
और जाते हुए प्रेमी की पीठ पर
लौट कर आने की उम्मीद.
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteप्रेम रस से ओत प्रोत सुंदर कविता। शेष तो उम्मीद पर दुनिया कायम है।
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