Sunday, June 20, 2021

फादरहुड


किसी पुरुष के बच्चे छोटे हैं और उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाए तो सारे परिवारजन और रिश्तेदार मिलकर पत्नी की चिता की आग ठंडी होने से पहले ही पुरुष के पुनर्विवाह के बारे में सोचने लगते हैं. क्योंकि बच्चे छोटे हैं, कैसे पाल पायेगा वो अकेले. बच्चों की खातिर पुरुष भी विवाह के लिए तैयार हो जाते हैं. यह बच्चों की खातिर पुनर्विवाह की सुविधा स्त्री के लिए नहीं है. उससे कहा जाता है, 'बच्चों का मुंह देखकर जी लो.; इस तरह के व्यवहार को खूब होते देखा है. नतीजा आपको एकल पैरेंटिंग में जितनी महिलाएं मिलेंगी उतने पुरुष नहीं. इसमें पुरुषों का दोष नहीं है. उस सोशल कंसट्रकशन का दोष है जो यह माने बैठा है कि बच्चे पालने का बड़ा हिस्सा माँ के हिस्से आता है. ऐसे बहुत से पिताओं को जानती हूँ जिन्हें पता ही नहीं उनके बच्चे कब बड़े हो गए. एक ही घर में रहते हुए जान नहीं पाए कि कब पत्नी बीमार होकर खुद ही ठीक हो गयी और कब बच्चे बड़े हो गये. उनकी भूमिका बस होने की थी सो वो हुए. इससे ज्यादा न हो पाये.

मुझे हमेशा से लगता है कि पैरेंटिंग को लेकर भारतीय समाज में अभी बहुत जागरूकता आनी बाकी है. पुरुषों और स्त्रियों दोनों को यह समझने की जरूरत है कि गर्भधारण, प्रसव और स्तनपान के अतिरिक्त कोई ऐसा काम नहीं जो स्त्री कर सकती है पुरुष नहीं. तो अपने परम आदर्श पतियों को पैरेंटिंग के लिए प्रोत्साहित कीजिये. और अगर वो डायपर चेंज करते हैं, बच्चे का फीड तैयार करते हैं, मालिश करते हैं (कभी-कभार नहीं, नियमित) तो उन्हें यह सुख लेने दीजिये. और इसे किसी एहसान या महान गुण की तरह न देखकर सामान्य तौर पर देखना शुरू करिए. माँ की महानता के गुणगान के पीछे पिता के कर्तव्य आराम करने चले गए हैं. उन्हें बाहर निकालना जरूरी है. बच्चे पालने का सुख दोनों को लेना है न आखिर. और अगर किसी कारण कोई भी एक सिंगल पैरेंटिंग के लिए बचता है तो वो उसे निभा सकता है. अकेले. स्त्री भी, पुरुष भी.

कल नेटफ्लिक्स पर 'Fatherhood' देखी. प्यारी फिल्म है. बच्ची की माँ की मृत्यु बच्ची के जन्म के समय हो जाती है और तब हमेशा से लापरवाह समझे जाना वाला शख्स पिता बनकर उभरता है. न आया की मदद, न नानी दादी की न बच्ची का वास्ता देकर दूसरी शादी. नौकरी और बच्ची को संभालता पिता. फिल्म प्यारी है.

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