हम साथ थे और खामोश थे. ख़ामोशी हमें और करीब ले आती. जैसे-जैसे ख़ामोशी करीब आती जाती मौसम यूँ ठहर जाता मानो उसे किसी ने स्टेचू बोल दिया हो. ख़ामोशी से बचने को फिर हम किसी वाक्य की ओट में खुद को छुपा लेते और कदमों की रफ्तार तेज़ कर देते. हालाँकि हमें पहुंचना कहीं नहीं था फिर भी.
हम दोनों जीवन में जूझ रहे थे और जीवन के प्रेम में आकंठ भरे थे. अचानक उसने कहा, 'मैंने अकेलपन के सुर को साध लिया है. अब मुझे इसकी आदत लग गयी है.' मैंने कहना चाहा, 'हाँ मैं जानती हूँ और यह तुमसे सीखना चाहती हूँ.' लेकिन चुप रही. उस समय सबसे सही सुर चुप का लगा हुआ था. एक छोटा सा वाक्य भी करक रहा था. यह वह समय था जब स्मृतियाँ भी स्थगित थीं. हथेलियों पर वर्तमान का सबसे चमकीला सिक्का मुस्कुरा रहा था जिसे यकीनन उम्र भर खर्च होने से बचाना है. बहुत मुश्किल दिनों में भी. मुश्किल दिनों में इस चमकीले सिक्के को हथेलियों में रखकर सोचूंगी कि इतनी भी कंगाल नहीं और उसे वापस जेब में रख लूंगी शायद.
मैंने फूलों से लाड़ में भरकर कहा, ज्यादा मुस्कुराओ मत लेकिन वो खिलखिला दिए. मैंने हम पर पड़ती, हमारे साथ चलती धूप की किरनों से कहा ज्यादा झिलमिल मत करो लेकिन वे शरारत से हंस दीं और हमारे सर से उतरकर कांधों पर आ बैठीं. कभी चेहरे पर भी गिरतीं वो और कभी पीठ पर सवार हो लेतीं. मैंने रास्तों से कहा और लम्बे हो जाओ. रास्ते अमूमन मेरी बात मानते हैं लेकिन उस रोज उन्होंने भी शरारत की और वो और लम्बे नहीं हुए बल्कि उन्होंने खुद को सिकोड़ लिया. इन सबकी शरारतों को देख मन मुस्कुरा दिया. फिर लगा ठीक ही हुआ. वरना इतना सारा सुख मैं भला कैसे सहेज पाती.
एक दोस्त ने एक बार साथ चलते हुए कहा था कि पैदल साथ चलना सिर्फ साथ चलना नहीं होता साथ में गहरे उतरना होता है. दोस्त का कहा उस रोज सबसे सुंदर अनुभूति बनकर सामने था उस रोज. चुप्पियों की गहनता में उतरे उस साथ में अपनी संगत में चला गया ढेर सारा स्मृति बन अंखुआने को ही था कि रास्तों ने उन्हें रोक दिया. वर्तमान के इस वक्फे में स्मृति की कोई जगह नहीं थी. साथ चलना अगर चुप्पियों की संगत पर हो तो श्रेष्ठ होता है यह उस रोज समझ आया.
इस तरह साथ चलते हुए जो आपस में टकरा जाने के दौरान उग आये होते हैं नन्हे-नन्हे स्पर्श वो जिन्दगी की बहुत बड़ी अमानत होते हैं. ये स्पर्श ढेर सारे शोर के बीच मौन की उस नदी से होते हैं जिनमें डुबकी लगाकर हम कभी भी तरोताजा हो सकते हैं. उन नन्हे स्पर्शों की खुशबू जीवन को जीवन भर महकाती है. साँसों की लय को जीवन बनाती है.
आज जीवन के तमाम कोलाहल के बीच मौन की उस नदी का पानी कलकल कर रहा है. मैं अपनी अंजुरी में मौन का पानी लिए बैठी हूँ. भीतर के तमाम सूखे को नमी मिल रही हो जैसे. आज की सुबह की चाय में बीते दिनों की कोई छाया चली आई है. सोचती हूँ स्मृतियाँ न हों तो भला क्या हो जीवन. और वर्तमान में ऐसा कुछ जिया हुआ न हो तो क्या हों स्मृतियाँ. मेरी सुबह की चाय में उसकी स्मृति है उसकी सुबह में चाय के साथ कौन होगा?
उस रोज के साथ चलते हुए का सारा जिया हुआ जिन्दगी के ढेर सारे ठहरे हुए को गति दे रहा है और ढेर सारी बेवजह की भागदौड़ को ठहरने की एक जगह दे रहा है. मैं अपने भीतर चलते हुए उस जगह पहुँच चुकी हूँ जहाँ एक पंछी मौन की नदी में अपनी चोंच डुबोकर इधर-उधर देखने लगता है और फिर से अपनी चोंच उस नदी में डुबो देता है. यह पंछी बेहद खूबसूरत है. उसकी गर्दन पर नीले रंग की धारियां हैं और उसकी चोंच लाल है. क्या यह स्मृति का पंछी है?
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 18 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमोहक !
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteसुन्दर आलेख।
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत गहन अहसास ! अद्भुत तरीका है आपके लेखन का एक अलग अंदाज लिए।
ReplyDeleteगद्य में भी कार्य जैसी सरसता ।