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'कुछ तार कभी टूटते नहीं हैं. कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें. उन्हें लाख आश्वासन भी क्यों न दें कि अभी तोड़ रहे हैं, पर बाद में गाँठ बांधकर फिर से जोड़ सकते हैं, पर वह मानते नहीं हैं. सारे तनाव, खिंचाव के साथ वह भीतर कहीं बहुत महीन त्रासदी के साथ जुड़े रहते हैं.'
- (बहुत दूर कितना दूर होता है से)
133-134 पेज पर जैसे अटक गयी हूँ. खूब-खूब रोना आ रहा है. इस रोने में दुःख नहीं है. स्मृतियाँ हैं जो अब दुःख से खाली हो चुकी हैं. इस रोने में वो लम्हे हैं जो मुकम्मल हो सकते थे लेकिन हुए नहीं...यूँ मुक्कमल होना भी क्या होता है सिवाय भ्रम के.
ऐसा लग रहा है जंग हे से मैं ही बिछड़ रही हूँ. जितना समझा है जीवन को बिछड़ना सबसे त्रासद शब्द है दुनिया का. भले ही इसमें फिर मिलने की क्षीण संभावना छुपी ही क्यों न हो फिर भी इसकी त्रासदी कम नहीं होती.
'मैंने कहा मैं चला जाऊँगा....लेकिन उसका यह कहना कि छोड़ने आती हूँ, बस स्टैंड के बाहर एक आखिरी कॉफ़ी साथ पी लेंगे.'
यह लालसा ही तो जीवन को कमजोर बनाती है, मोह में बांधती है. मोह में न बंधना शायद कुछ हद तक आसान होता हो लेकिन अगर कभी एक लम्हे को भी आप किसी से मोह में बंधे हैं फिर उस गाँठ को खोलना बहुत मुश्किल होता है.
मुझे विदा के तमाम पल याद आ गये, तुम्हारा तेज क़दमों से लौटना, पलटकर कभी न देखना. जैसे कुछ था जिससे हाथ छुड़ाकर जा रहे हो, हाँ वह मोह ही था शायद. या तुम उदासी बटोरकर जा रहे होते थे. या कोई हडबडी तुम्हें खींच रही होती थी. तुम्हारे जाने के बाद कई बार देर तक नहीं चली ट्रेन या लेट होती गयी फ्लाईट और वो वक्त जबकि हम कुछ और वक्त साथ बिता सकते थे यह सोचने में गया कि तुम्हें क्यों यह हड़बड़ी थी लौटने की. यह हड़बड़ी क्या कभी आने की भी थी?
अब सोचती हूँ तो हंसी आती है. आना होता क्या है, जाना क्या होता है आखिर. यह समझना ही जीवन है. जो आता है वो वापस नहीं लौटता कभी, लौटता कोई और है. और जो आया होता है वो जिन्दगी में अपनी पर्याप्त जगह घेर लेता है. वो जो देर तक हिलती रही थी टहनी तुम्हारे जाने के बाद मेरे साथ तुम्हारी पीठ देखते हुए उसने मुझसे क्यों नहीं कहा, कि ये ते कदम, ये उजली कमीज वाली पीठ उदास देह है, सुखी मन तुम्हारे पास ही छूट गया है इसका.
असल में जाना तभी हो जाता है जब हम जाने के बारे में सोच लेते हैं, उसके बाद जबरन रोके गए लम्हे साथ नहीं होते विदा की यातना होते हैं. हम उन लम्हों में साथ को नहीं विदा की यातना को याद करते रहते हैं और इस तरह उन बिना घटे यातना के लम्हों को कल्पना में इतना जी लेते हैं कि साथ की कोमल पंखुडियां उदास होने लगती हैं.
जंग हे को याद कर रही हूँ. जैसे वो इतने दिनों से मेरे साथ थीं, खाने पर, कंसर्ट में, सड़कों पर, कॉफ़ी, वाइन सब में साथ. कहना चाहती हूँ मत जाओ जंग हे लेकिन वो तो जा ही नहीं रही. जा तो कोई और रहा है और बिछड़ मैं रही हूँ. अजीब बात है न.
मैंने जंग हे को देखा नहीं है लेकिन ऐसा लगता है मैंने देखा है उन्हें, उनकी कोमल सफेद और मुलायम हथेलियों को हाथों में लिया है. ठीक इस वक्त मुझे निर्मल वर्मा की उन हथेलियों की याद हो आई जिन हथेलियों में एक रोज मेरी नन्ही हथेलियाँ थीं. यह कोरों से टपकता सुख आज बाहर की बारिश से ज्यादा मीठा हो गया है...
सुन्दर प्रस्तुति
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