Sunday, April 19, 2020

जो स्वप्न मुझे नहीं आते...


आज एक याद के साथ आँख खुली. उंहू तुम्हारी याद के साथ नहीं, पुराने घर में आने वाले पंछियों की याद के साथ. वो अब भी आते होंगे न टेरेस पर. उन्हें कोई दाना देता होगा न? तोतों के उस झुण्ड में शरारतन इंट्री लेने वाला कबूतर अब भी शरारत करता होगा शायद. और वो बुलबुल का जोड़ा जो सामने वाले आम के पेड़ पर आता था...तब मुझे लगने लगा था वो मुझसे मिलने ही आता था... वो सारे तोते, कबूतर, बुलबुल सब मेरे दोस्त थे...मुझे उनकी याद आती है. क्या उन्हें भी मेरी याद आती होगी?

ओह...उन्हें नहीं आती होगी क्या मेरी याद? क्या वो मेरे बिना भी उतने ही खुश होंगे, वैसे ही चहकते होंगे? मेरे मन में उठा यह सवाल मेरी पोल खोल रहा है. हम क्यों चाहते हैं कि जिसे हम प्यार करते हैं वो भी हमें प्यार करे, क्यों हम ही किसी की ख़ुशी और किसी का दुःख बनना चाहते हैं? यह एक किस्म का आधिपत्य भाव है. पजेसिवनेस. अभी कुछ दिन पहले एक दोस्त ने पूछा था प्यार में पजेसिव होने के बारे में. कोई कुछ पूछे तो हम कुछ न कुछ कह ही देते हैं. लेकिन वो कुछ न कुछ असल में कुछ नहीं होता.

पजेसिवनेस को खूब जिया है मैंने, चाहा भी है कि कोई हो पजेसिव मेरे लिए. 'मुझे अपनी पलकों में छुपा लेना, दिल में कैद कर लेना, दुनिया से छुपा के रखना' ये सब कहाँ से आया प्रेम में. और प्रेम इन सबसे दूर बैठा मुस्कुरा रहा होता है...वो पंछी बन उड़ जाता है...हम उसकी राह तकते रहते हैं. फिर वो कभी लौटता है, बैठता है पास, पूछता है हाल फिर उड़ जाता है. कभी वो नहीं भी लौटता...हम इंतजार करते रहते हैं...प्रेम पंछी नहीं है, इंतजार है...क्योंकि जब वो उड़ जाता है तब कितना सारा रह जाता है, उससे भी ज्यादा जब वो था...

छोड़ो न ये सब. आज इतवार की सुबह है...इसमें कुछ इत्मिनान है. इस इत्मिनान में मैंने आज रुस्तम जी की कुछ कवितायें पढ़ी हैं. उनकी कवितायेँ पढ़ते हुए लगता है पानी पिया हो....कुँए का पानी बिसलरी का नहीं, फ्रिज का भी नहीं. अजब सा सलोनापन है इन कविताओं में. मध्धम सी आवाज है इन कविताओं में. यह आवाज हमसे बात करती है. हमारे साथ रहती है...'जो स्वप्न मुझे नहीं आते, वो कहाँ जाते होंगे...'. दो पन्ने वॉन गॉग के भी पढ़े. पढ़े हुए को फिर से पढ़ना आराम दे रहा इन दिनों.

कितना कुछ होता है इन दिनों कहने को...लेकिन कहना क्यों है. शांत रहना भी एक ढब है...देर तक खिड़की के उस पार टंके आसमान को देखना भी एक ढब है...

सोचना उनके बारे में जो अचानक ख़बरों में आते हैं किसी जलजले की तरह और फिर गायब हो जाते हैं मुसलसल जारी रहता है. हमेशा से ख़बरों के उस फौलोअप के बारे में सोचती हूँ जो अख़बारों में आता नहीं कभी. खबर से गायब होना या कर दिया जाना 'सब ठीक' हो जाना नहीं है, ठीक महसूस करवाए जाने का वहम क्रियेट करना है. हम क्रियेट किये हुए समय में जी रहे हैं, भावनात्मक स्तर तक इस क्रियेटेड, क्राफ्टेड के शिकार हैं...तभी तो जब सामने है जीवन हमें वो दिख ही नहीं रहा. हम जीवन नहीं सहेज रहे, खबरों में गुम हो रहे हैं. क्राफ्टेड और क्रियेटेड भावनाओं के संसार में गुम हो रहे हैं हम. मैंने लॉकडाउन डेज़ की शुरुआत होते ही सचमुच फिजिकल के साथ सोशल मीडिया डिस्टेंसिंग भी की है. इस दौरान सबको याद किया उन सबको जिनकी याद ठिठकी हुई थी जेहन के दरवाजे पर.

इधर नए पंछियों से दोस्ती हुई है. पहले वो खिड़की तक भी मुश्किल से आते थे इन दिनों घर के भीतर भी मजे में टहलने लगे हैं. आहट से घबराते नहीं हैं...जैसे पुराने घर के पंछी ढीठ हो गए थे कि प्लेट में रखा सैंडविच साथ में खाने लगे थे ये भी उसी राह पर हैं...ये पंछी उन पंछियों की याद लेकर आये हैं. ये उन लोगों की याद लेकर भी आये हैं जो दृश्य से बाहर कर दिए गए हैं. दृश्य सिर्फ सुनहरे क्यों होने चाहिए? जागना तो बताना जरूर...फिलहाल चाय बनाती हूँ फिर से...तुम्हारी भी बना लूं ? 

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 19 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. "प्रेम पंछी नहीं है, इंतज़ार है "

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति

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