संज्ञा उपध्याय |
सिर्फ एक पत्ते पर
रोशनी गिर रही थी
सिर्फ एक पत्ता हरा था
सिर्फ एक पत्ता हिल रहा था
हौले-हौले हिल रहा था
पृथ्वी शांत थी
पूरी पृथ्वी शांत थी
सिर्फ एक पत्ता हिल रहा था. - रुस्तम
इस कविता में एक सांगीतिकता है. पहले यह कविता और इसकी भाषा एक बहुत ही शांत माहौल रचती है. फिर अपनी बात कहती है.
सिर्फ एक पत्ते पर रौशनी गिर रही थी.एक साथ नहीं कहती है.
पहले कहती है सिर्फ एक पत्ते पर.
रोशनी गिर रही थी. ज्यादा महत्वपूर्ण चीज रोशनी नहीं है, वह तो बाद की बात है. जरूरी बात है कि सिर्फ एक पत्ते पर गिर रही थी. सिर्फ एक पत्ता हरा था. सिर्फ एक पत्ता हिल रहा था.
पृथ्वी शांत थी. पूरी पृथ्वी शांत थी. एक पत्ते की बात इस कविता में चल रही है. एक पत्ते की बात इस कविता में चल रही है. एक पत्ते की बात करती यह कविता पृथ्वी पर आ जाती है. कहाँ एक पत्ता और पृथ्वी? इसलिए कविता पृथ्वी की शायद विशालता को, विराट को रचने के लिए दुबारा कहती है- पूरी पृथ्वी शांत थी. जैसे पृथ्वी शांत थी कहने से कुछ छूट सकता था. पूरी पृथ्वी शांत थी, बस एक पत्ता हिल रहा था. क्यों क्योंकि सिर्फ वही हरा था. क्यों? क्योंकि सिर्फ उसी पर रोशनी गिर रही थी.
यह कविता पढ़ते हुए कई तरह के मन बनते हैं. एक, जैसे कोई याद आती है. रह रहकर. कोई चीज कचोटती है.
रह रहकर. इस कविता का ढांचा उस तरह का भी है. रह रहकर...एक सांस में कोई बात कह दी. झट से. ऐसा नहीं है.
दूसरा, जैसे बस कुछ को ही रोशनी हासिल है. और पृथ्वी शांत है. पूरी पृथ्वी शांत है. तो पूरी पृथ्वी का शांत होना एक सवाल बन जाता है कि पूरी पृथ्वी शांत क्यों है?
एक मन कहता है कि यह किसी सघन क्षण की याद है. जब शेष कुछ नहीं था. बस वह क्षण था. वह पत्ता इस तरह दिख रहा था कि जैसे उसे देखने भर की रौशनी ही बची थी या बाकी थी. पर क्या उस पत्ते की खास स्थिति की वजह से रोशनी सिर्फ उसी पर गिर रही थी? या वह क्षण ख़ास था?
क्या रोशनी ज्ञान और उससे पैदा हुई सत्ता का प्रतीक है? कि वह इस पृथ्वी नाम के दरख्त के एक पत्ते हिस्से को हासिल है? और पूरी पृथ्वी शांत है? चुप.
कभी यही कविता उस एक पत्ते को समूची पृथ्वी से बाहर लाकर खड़ा कर देती है.
पूरी पृथ्वी शांत थी. पूरी पृथ्वी में तो वह पत्ता भी शामिल होना चाहिए. पर वह तो हिल रहा है. हरा है. उस पर रोशनी गिर रही है. कि उस एक पत्ते के बिना भी पृथ्वी पूरी थी. कि यह क्षण पारलौकिक था. पत्ता पृथ्वी से बाहर का लगता था. या कि पूरी पृथ्वी में उस पत्ते की कोई गिनती नहीं थी. उसका होना या न होना बराबर था.
- सुशील शुक्ल
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 27 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteखूबसूरत भाव ����
ReplyDeleteआह! कितनी सरल कविता है उसमें डुबकी लगा कर कितने गहरे तक पहुंचा जा सकता है कविता की हर सतह को छूने का यही एक रास्ता है
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