जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ आकाश
जो उदास मौसम में
झुक के आ जाता है
कन्धों के एकदम पास
जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ रास्तों को
जो जितने लम्बे होते हैं
उतनी गहन होती है उनकी पुकार
उन रास्तों पर अचानक
तुम थाम लेती हो हाथ
और रास्तों की लम्बाई
खूबसूरत साथ में बदल जाती है
जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ
मीठी सुबहों में महकती मधु मालती को
और जयपुर वाले घर की छत पर
सुबह की चाय के साथ खेलना आई स्पाई
जब तुम्हें सोचती हूँ
तब खुलती है जादू की एक पुड़िया
मासी मासी का मीठा स्वर महकाने लगता है मन
पंछियों का कोई झुण्ड गुजरता है करीब से
तुम दौड़ती भागती, मुस्कुराती आश्वस्त करती हो
कि मैं बेफिक्र हो सकती हूँ क्योंकि तुम हो मेरे पास.
गुईयाँदारी अजर रहे !
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 16 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमधुर भावों से सजी लाजवाब कृति...
ReplyDeleteवाह!!
रिश्तों की अहमियत को समझती रचना, सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteवात्सल्य से सरोबार यादों से लिपटी सुंदर रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteकोई इतना प्यार कैसे लुटा सकता है प्यारी गुईयां
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