Tuesday, June 11, 2019

जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये...



चाँद एकदम ठीक से सज गया है खिड़की में. न कम न ज्यादा, न रत्ती भर दाएं, न रत्ती भर बाएं खिड़की के ठीक सामने। सामने वाले पेड़ के कोने से झांकता. मैं उसे देख सुकून की सांस लेती हूँ. भीतर की सूखी नदी को नमी महसूस होती है. भागते-भागते थक चुके पैरों पर उभर आये छालों को जैसे मरहम मिला हो. तेज़ हवा का झोंका करीब आकर बैठ गया है. बीती हुई शाम की खुशबू मोगरे के फूलों में बसी हुई है. मोगरे जो पास ही कहीं खिले हैं. वो दिख नहीं रहे, महसूस हो रहे हैं. इश्क़ की तरह.

गोमती के किनारे से गुजरते हुए नदी में पांव डालकर बैठने की जिस इच्छा को पाला पोसा था उसे हरिद्वार में गंगा में पांव डालकर घंटों बैठकर पूरा होते देखना सपना नहीं था. सोचती हूँ कि सपना क्या था आखिर. मेरी आँखें छलक उठती हैं कि मेरा कोई सपना नहीं था. न है. बस कि नन्हे नन्हे लम्हों को शिद्द्त से जीने की इच्छा थी. बारिशों को पीने की, समंदर के किनारों पर घंटों पड़े रहनी की इच्छा जो अवचेतन में ही पड़ी रही होगी शायद। कि जब बारिश ने मुझे अपनी गिरफ्त में लिया तब मुझे अपनी इच्छा का इल्म हुआ, जब समंदर ने किनारे से उठाकर भीतर फेंक दिया तब समझी कि आह यह भी कोई इच्छा थी भीतर.

हमेशा जीकर ही जाना है अपनी इच्छाओं को, जी चुकने के बाद या कभी-कभी जीते हुए भी. जीने से पहले किसी इच्छा को जाना होता तो उसका पीछा किया होता. सपने खूब देखने चाहिए कहते हुए भी खुद के सपनों का पता नहीं लगा सकी.

आज फिर ऐसी ही किसी अनजानी इच्छा के भीतर हूँ. उसके भीतर होते हुए, उसे जीते हुए उसे जीने के लिए जूझते हुए, थकते हुए, निढाल होते हुए यूँ चाँद देखने का सुख मेरा सपना तो नहीं था. फिर क्योंकर मैं ऐसी घर की तलाश में भटक रही थी जिसकी खिड़की से चाँद दिखता हो.

वो सपने जो डरकर हम देखते नहीं वो अपना तिलस्म गढ़ लेते हैं, वो बैकडोर इंट्री लेते हैं. मैं इन दिनों ऐसे ही किसी अनदेखे सपने की जद में हूँ. वो सपना जो मेरा नहीं था लेकिन जिसमें होने का सुख मेरा ही है.

मेंहदी हसन को सुनना इस सपने का उन्वान है. गहरी ख़ामोशी है आसपास, 'जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये... अरसे बाद यह आवाज कानों में घुल रही है. यह चुराया हुआ लम्हा है, या बहुत मेहनत से उगाया हुआ. यह लम्हा बहुत छोटा है लेकिन इसने मुझे थाम लिया है. मुझे अपने खुद के पास वापस लौटने की इच्छा वापस जागती हुई नज़र आ रही है. खुद को छूकर देखती हूँ. कोई सिसकी फूटती है... कितनी दूर निकल गयी हूँ खुद से. कोई नहीं कहता कि 'लौट आओ, मत जाओ... ' फिर मैं दूर जाती ही जाती हूँ किसी रोबोट की तरह.. लेकिन ये चाँद मेरा रास्ता रोके खड़ा है आज. मेरी खिड़की के ठीक सामने टंगा चाँद। मेरे कमरे से नज़र आता चाँद.

मैं बहुत रोना चाहती हूँ. बहुत सोना चाहती हूँ. थोड़ा सा जीना चाहती हूँ बहुत सारा मरना चाहती हूँ. कि मेरी हथेलियों में कोई लकीरें नहीं, मेरी आँखों में कोई ख्वाब नहीं बस कि माथे पर चाँद का टीका है...

पांव का दर्द टप टप कर रहा है. यह दर्द दिल के दर्द से कितना कम है. मैं न दुखी हूँ न उदास हूँ बस मैं हूँ... बाद मुदद्त।


(इश्क़ शहर, घर)

3 comments:

  1. वाह. यह तो किसी कविता से कम नहीं.

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  2. Ek ek lafz jadu ki tarah bandhne wala, bilkul kavita ki tarah. Badhayi.
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