जैसे किसी सपने में आँख खुली हो. जैसे मौन में कोई बात चली हो. खामोश बात धीमे धीमे सुबह की ओसभरी घास पर चलते हुए. मैं इस मौन को सुन रही हूँ. ठीक ठीक सुन नहीं पा रही हूँ शायद. जितना सुन पा रही हूँ उसमें असीम शांति है.
सामने लीची, आम और अनार के पेड़ भीग रहे है. मेरा शहर बरस रहा है. भीतर भी, बाहर भी. भीतर ज्यादा बरस रहा है. भीतर सूखा भी ज्यादा हो गया है. मैं बाहर झरती बारिश की आवाज में डूबी हूँ. सामने जो गार्डन है जिसकी बेंच पर रात में बैठकर कुछ देर खुद से बात करना अच्छा लगता है वो भी भीग रही है. कबूतर भीग रहे हैं और पांखें खुजला रहे हैं. झूले भीग रहे हैं. बच्चे स्कूल गये हैं. स्त्रियाँ घर की साफ सफाई में लगी हैं. ऑफिस जाने वाले ऑफिस जाने की तैयारी में लगे हैं. किसी के पास बारिश को सुनने की फुर्सत नहीं. हालाँकि सूखा सबके भीतर है. मेरी चाय के पास मेरे प्रिय कवि हैं विनोद कुमार शुक्ल 'कविता से लम्बी कविता' बनकर. जीवन से लम्बा जीवन, बारिश से ज्यादा बारिश, उदासी से ज्यादा उदासी और सुबह में ज्यादा सुबह का उगना महसूस हो रहा है.
बरसों की थकान है पोरों में. बहुत सारे सवाल हैं आसपास. ढेर उलझनें, लेकिन इस पल में कुछ भी नहीं. खुद मैं भी नहीं. स्त्री के लिए एक कोना होना जरूरी है. स्त्रियों अपने लिए, गहना, जेवर, महंगी साड़ियाँ बाद में लेना पहले माँगना या ले लेना अपना एक कोना. यह कोना जीवन है. इस कोने में हमारा होना बचा रहता है. आज जीवन के मध्य में एक सुबह के भीतर खुद को यूँ देखना मीठा लग रहा है. इस इत्ती बड़ी सी दुनिया में यह मेरा कोना है, मेरा घर. मेरा कोना बारिश में भीग रहा है...सूखा बहुत हो गया था सचमुच. यह भीगना सुखद है.
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