हाथों की लकीरें एक-एक कर टूट रही हैं. टूट-टूटकर हथेलियों से गिर रही हैं. नयी लकीरें उग भी रही हैं. टूटकर गिरने की गति नयी उगने की गति से काफी ज्यादा है. हथेली अमूमन अब बिना लकीरों की सी हो चली है. उसे देर तक देखती रहती हूँ. कोरे कागज सी कोरी हथेलियाँ. इन पर स्मृति का कोई चिन्ह तक अब शेष नहीं रहा. इतनी खाली हथेलियाँ देखी हैं कभी? मैं किसी से पूछना चाहती हूँ. लेकिन आसपास कोई नहीं. यह हथेलियों का खाली होना ही है. मुस्कुराते हुए बिना लकीरों वाले हाथ से चाय का कप थामते हुए ध्यान बाहर लगाती हूँ. मन के बाहर भी. बड़े दिन से बाहर देखा ही न हो जैसे. आसमान साफ़ है. ना-नुकुर करते हुए ही सही आखिर सर्दियों की विदाई हो चुकी है. चिड़ियों का खेल जारी है. जब मैं इन्हें नहीं देखती तब भी ये ऐसे ही तो खेलती होंगी. जीवन ऐसा ही है.
एक घर है, जिसकी बालकनी सनसेट प्वाइंट है, एक सड़क है जो आसमान को जाती है, एक पगडंडी है जो न देखे गए ख्वाबों की याद दिलाती है, एक घास का मैदान है जो पुकारता है नंगे पांव दौड़ते हुए आने को, कुछ पागल हवाएं हैं जिन्होंने शहर की सड़कों को गुलाबी और पीले फूलों से भर रखा है. इतना कुछ तो है फिर जीवन का यह वीराना कहाँ से आता है आखिर. जो भी हो यह वीरानगी किसी राग सी लग रही है. पंचम सुर पर चढ़ी वीरानी.
कुछ दिनों से पैदल चलने का मन हो रहा है. यह सड़कों से मेरे रिश्ते की बात है. बिना पैदल चले शहरों से रिश्ता नहीं बनता. बिना नंगे पाँव चले घास से रिश्ता नहीं बनता, बिना दूर जाए करीबी से रिश्ता नहीं बनता. बिना जार- जार रोये सुख से रिश्ता नहीं बनता. लकीरों का यह टूटकर गिरना सुखद है.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4.4.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3295 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद सहित
लकीरों का टूटकर गिरना सुखद है ! नई लकीरें आने के लिए पुरानी टूटनी ही चाहिएँ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ,सार्थक चिन्तनपरक लेख...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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