Saturday, March 23, 2019

चलो न चाय पीते हैं

प्रिय देवयानी, 

उस रोज जब तुम्हारी जयपुर छोड़ने वाली पोस्ट पढ़ी तो जाने कितनी सिसकियाँ घेरकर बैठ गयी थीं. जाने क्यों सब इतना जिया हुआ लग रहा था उस पोस्ट का. हर्फ दर हर्फ. तुम मेरे भीतर जीती हो और शायद मैं भी तुम्हारे भीतर. आज 23 मार्च है. जानती हो आज ही के दिन सात बरस पहले मैंने भी तुम्हारी तरह अपना शहर छोड़ा था. सामान वाले ट्रक के साथ नहीं सिर्फ एक सूटकेस में रखे कुछ जोड़े कपड़ों के साथ. पहली बार अपने शहर से बिछड़ रही थी. बेटू से भी. जाने कैसा कच्चा-कच्चा सा मन था. लेकिन कुछ नया करने, देखने और जीने का चाव था. खुद पर जरा सा आत्मविश्वास था जो उस वक़्त ताजा ताजा कमाया था. बहुत सारा डर भी था कि जाने क्या होगा. देहरादून मेरे दोस्तों का शहर भी नहीं था. सिर्फ स्वाति थी जो हर वक़्त साथ रही, अब तक है.

लेकिन आज यह शहर मुझे मेरा शहर लगता है. बहुत सारे दोस्त हैं. ढेर सारा प्यार मिला यहाँ, सम्मान भी. यहाँ के रास्ते, पेड़, पंछी, हवाएं सबने मुझे अपनाया, दुलराया. नूतन गैरोला दी ने दूर से पहचाना और अपने प्रेम में रंग लिया. गीता गैरोला दी ने इतना अधिकार दिया कि उनकी वार्डरोब मेरी ही है अब और संतोषी के हाथ का खाना भी.

जानती हो, शहर छोड़ने चाहिए. शहर छूटता है तो नया शहर मिलता है. नए संघर्ष मिलते हैं जो निखारते हैं, नये लोग मिलते हैं जो संवारते हैं. नए ख़्वाब मिलते हैं जो जीने की वजह बनते हैं. तुम्हें भी खूब सारे नए पुराने दोस्त मुबारक, नए संघर्षों की आंच और ढेर सारे ख्वाब मुबारक.

तुम दिल्ली में हो तो दिल्ली मेरा भी हुआ थोड़ा सा जैसे मैं देहरादून में हूँ तो देहरादून तुम्हारा भी है ही. जयपुर और लखनऊ तो हैं ही अपने.

चलो न चाय पीते हैं.

3 comments:

  1. जैसे ये तेरा घर ये मेरा घर
    पर नहीं कह सकते
    ये शहर बहुत अजीब है

    सजीव होते हैं
    अपने अपने शहर
    और चाय में स्वाद भी
    अपने शहर का
    कुछ अलग होता है।

    ReplyDelete
  2. शायर कभी अपने हो जाते हैं कभी पराये भी ...
    अपनों के होने से शहर अपने हो जाएँ तो जीवा आसान हो जाये ... चाय तो स्वाद देती है हर जगह ... अच्छा माड़ा ...

    ReplyDelete