Monday, November 12, 2018

चलते जाने का सबब कोई नहीं


एक शोर से गुजरी हूँ, दूसरे शोर में दाखिल हुई हूँ. तीसरा शोर इंतज़ार में है. फिर शायद चौथा, पांचवां या सौवां शोर. चल रही हूँ चलने का सबब नहीं जानती शायद इतना ही जानती हूँ कि न चलना फितरत ही नहीं. चलना कई बार शोर से भागना भी होता है यह जानते हुए भी कि यह शोर अंतहीन है. भीतर जब शोर हो तो बाहर तो इसे होना ही हुआ. मुझे शोर से मुक्ति चाहिए, खूब बोलते हुए घनी चुप में छुप जाने का जी चाहता है. शांति चाहती हूँ लेकिन जैसे ही शांति के करीब पहुँचती हूँ घबरा जाती हूँ. क्या चाहती हूँ पता नहीं, बस चलना जानती हूँ सो चल रही हूँ. लगता है सदियों से चल रही हूँ. अब मेरी चाल थकने लगी है, मैं भी थकने लगी हूँ, सोना चाहती हूँ. बेफिक्र नींद.

मेरे कानों ने कभी यह नहीं सुना कि 'मैं हूँ न'. खुद को रोज हारते देख उदास हुआ करती थी. फिर हताश होने लगी. इस उदासी और हताशा में शायद जीने की इच्छा रही होगी. तो चल पड़ी एक रोज जीने की तलाश में. तबसे चलती जा रही हूँ. नहीं जानती  थी कि जीने की ख्वाहिश करना कितना मुश्किल होता है. हालाँकि बिना जिए जीते जाने से ज्यादा मुश्किल भी नहीं.

हर रोज नई जंग होती है. एक लम्हे में हजार गांठें लगी होती हैं सुलझाते-सुलझाते और उलझा लेती हूँ. कभी सुलझ जाए कोई लम्हा तो बच्चों सी चहक उठती हूँ उस पल भर की चहक में ही जीवन है. मैं उसे ही खोज रही थी शायद। खोज रही हूँ. हर रोज अपनी हाथों की लकीरों को देखती हूँ वो रोज बदली हुई नज़र आती हैं, कई रेखाएं तो घिस चुकी हैं एकदम. कुछ मुरझा चुकी हैं. मुझे कुछ नहीं चाहिए असल में. कुछ भी नहीं. मैं निराश नहीं हूँ, हताश भी नहीं हूँ बस थक गयी हूँ. बहुत थकन है पोर-पोर में. न कोई इच्छा शक्ति देती है न सपना ही कोई बस कि पैरों में बंधी चरखी पर नाचती फिरती हूँ. किसी भी लम्हे में इत्मिनान नहीं, सुख नहीं हालाँकि सुख जिसे कहती है दुनिया बिखरा है हर तरफ.

बचपन से अब तक जो बात याद आती है कि सबको मेरी जरूरत है, बहुत जरूरत, इतनी कि बचपन में बचपन की जगह ही नहीं बची. मुझे कभी नहीं बताया किसी ने कि कौन सी शरारत किया करती थी मैं, किस बात पर अड़ जाती थी जिद पर. बिना जिया हुआ उदास बचपन साथ रहता है. साथ वो सब रहता है जो था नहीं, जो साथ है वो साथ लगा नहीं कभी.

दोस्त कहती है, कुछ भी शाश्वत नहीं, हाँ, समझती हूँ. शाश्वत कुछ भी नहीं सिवाय इस उदासी के. इस उदासी की गोद में सर रखकर सो जाना ही उपाय है. 'मैं हूँ न' की यात्रा तय कर पाना आसान कहाँ होता है।

(नोट- कहीं भी साझा करने या प्रकाशित करने के लिए नहीं )

8 comments:

  1. सभी यात्राओं में हैं
    अपनी अपनी
    बस यही कहना ठीक है
    हैप्पी जर्नी ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (14-11-2018) को "बालगीत और बालकविता में भेद" (चर्चा अंक-3155) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  4. https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/11/blog-post_13.html

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  5. कभी सुना नहीं तो कभी कहा तो होगा..मैं हूँ न..और उन आँखों की चमक को साथ लेकर चलने से उदासी हार गयी होगी..

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  6. मन मंथन से निकली जिजीविषा ।
    अद्भुत अभिव्यक्ति ।
    साधुवाद।

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  7. प्रतिभा जी, सादर नमस्कार
    मुझे आपसे कुछ मार्गदर्शन चाहिए था
    आप बहुत अच्छा लिखती हैं

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  8. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दोस्तों का प्यार - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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