क्यों नहीं? बस करना यह है कि ऐसे लम्हों को एक याद में बदल देना है,
'शब्द होते हैं पल भर के लिए निशब्द होता है अनंतकाल के लिए.'
( फिल्म अनुरनन से)
'अनुरनन' ( resonance ) यह मेरी प्रिय फिल्मों में शुमार है. इस पर मैं बहुत तसल्ली से लिखना चाह रही थी.हालंकि तसल्ली अब भी कहाँ मिली है. सिनेमा किस तरह अपना असर दिखाता है, किस तरह वो आपके करीब आकर बैठ जाता है. किरदार आपसे दोस्ती कर लेते हैं ऐसा कुछ महसूस हुआ इस फिल्म को देखते हुए. फिल्म के सभी किरदार राहुल बोस, रितुपर्णो सेनगुप्ता, राइमा सेन और रजत कपूर बेहद संतुलित ढंग से फिल्म में अपनी भूमिकाओं में पैबस्त हैं. मानो वो अभिनय न कर रहे हों, एक खूबसूरत धुन में गुम हों. फिल्म के कुछ दृश्य तो तमाम थकन को निचोड़कर फेंक देने में कामयाब हैं.
बेहद सुंदर भरोसे और प्यार भरे रिश्तों के बीच भी अचानक किस तरह समाज अपनी गलतफहमियों की टोकरी उठाये दाखिल होता है और फिर होता ही जाता है. जिस वक़्त आर्टिकल 497 को लेकर तरह तरह की विवेचनाएँ आ रही हों उस वक़्त ऐसे रिश्तों के ताने-बाने से गुंथी फिल्म को दोबारा देखा जाना चाहिए. समाज की गलतफहमियों वाली टोकरी उतारकर दूर रख आने से जिन्दगी कितनी खूबसूरत, कितनी आसान हो सकती थी लेकिन ऐसा होना कहाँ आसान है.
फिल्म कई परतों में खुलती भी है और हमारी तमाम परतों को खोलती भी है. सच कहूँ तो इस फिल्म ने बहुत सुकून बख्शा था एक वक़्त में. सिनेमोटोग्राफ़ी सुंदर है. फिल्म के तमाम दृश्य किसी तिलस्मी सौन्दर्य से भरपूर नजर आते हैं. बात करने को दिल नहीं चाहता, सिर्फ उन दृश्यों में गुम जाने को जी चाहता है अपनी साँसों की आवाज सुनते हुए.
सुन्दर। मौका लगा तो देखेंगे।
ReplyDeleteसुन्दर समीक्षा
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