Thursday, March 2, 2017

पलाश के फूल दिल्ली और मौन में रिल्के...



मौसम वही है जाती हुई सर्दियों का...पलाश आसमान से लेकर ज़मीन तक छाये हुए हैं. इनको देखकर मन चिहुंक उठता है. जाने कैसा रिश्ता है इनसे। जिस तरह ये ऊंची-ऊंची टहनियों पर खिलकर मुस्कुराते हैं उतनी ही शिद्दत से सड़क पे बिछने के बाद मुस्कुराते हैं .. धरती हो या आसमान रंगत एक सी मुस्कुराहट एक सी... बेपरवाह, बेख़ौफ़। मैं इनके इश्क़ में हमेशा सुधबुध खो बैठती हूँ । रास्तों से भटक जाती हूँ, इनके चटख रंग जैसे हाथ पकड़कर किसी और ही दुनिया में ले जाते हैं, वही दुनिया जहाँ शायद मैं हमेशा से जाना चाहती हूँ...

दिल्ली पहुँचते ही पहली मुलाकात पलाशों से ही हुई दूसरी वरयाम सिंह जी से. वरयाम जी अब दूसरे नहीं लगते।उनसे जब भी मिलती हूँ जिस कदर लाड़ से वो मुझे, मेरे सपनों को, मेरी गलतियों को सहेजते हैं उनसे बहुत अपनापा हो गया है. उन्हें देख लगता है कि 'असल में बड़ा होना क्या होता है'.

वो मुझे पलाशों के साथ छोड़कर हँसते हुए चले जाते हैं, ये कहकर 'आना आराम से, मैं हूँ.' वो मुझे समझते हैं. इस दुनिया में कितने कम लोग किसी को समझते हैं.

झरते हुए पलाशों के बीच खड़े होकर लगता है मानो किसी ख्वाब की खिड़की खुल गई हो..मैं उस खिड़की से कूदकर भागी हूँ,  ख्वाबों के जंगलों में. ख्वाब भी तो बड़े आड़े-टेढ़े हैं... फूलों से ढंकी धरती के ख्वाब, नफरतों के साए से भी दूर जिन्दगी की मोहब्बत में डूबे लोगों की दुनिया का ख्वाब.

मेरे आसपास से लोग आ-जा रहे हैं. अजनबी लोग भी जाने-पहचाने लग रहे हैं, जाने-पहचाने भी अजनबी से. बूढ़े बाबा बड़े जतन से चाय बना रहे हैं... अदरक इलायची की खुशबू हवाओं में घुल रही है... मैं पलाश के जंगल में गुम हूँ चाय की खुशबू में कैद...मेरे दोनों हाथ जितने पलाश बटोर सकते थे, बटोर चुके हैं... पलाश बटोरते समय सोचती हूँ, 'काश कुछ और फूल बटोर पाती'. आखिर पलाशों से एकदम पट चुकी धरती पर बैठ गयी हूँ...'खुश हो?' कोरों से बहती बदली पूछती हूँ. चुप रहती हूँ....


बाबा आवाज़ लगाते हैं, 'बिटिया चाय पी लो आकर'
मैं उनको देख मुस्कुराती हूँ. मुझे उनकी आवाज धरती की सबसे प्यारी आवाज़ लगती है मानो वो चाय पीने को नहीं जी लेने को कह रहे हों.  मैं जितने पलाश समेट सकती हूँ सब समेटकर बाबा के पास चाय पीने पहुँचती हूँ. मैं अपनी ख्वाब की दुनिया में  इस जगह का 'पलाश कॉर्नर' रखना चाहती हूँ,  दुनिया के नक़्शे में यह 'मंडी हाउस' है. साहित्य अकादमी का गलियारा गुलज़ार है. कोई कोना मैं भी तलाशती हूँ... जहाँ मैं अपने पलाश भी संभाले रह सकूँ।

रूस का एक संसार खोलती हूँ. बोरिस पास्तेर्नाक डूबकर रिल्के की कवितायेँ पढ़ रहे हैं... मारीना रिल्के को ख़त लिख रही है...रिल्के मौन में हैं... पुश्किन की कविता 'टू द सी' वहीं है आसपास।

पलाश अब भी मुस्कुरा रहे हैं... दिन बीत चुका है, ओहो...'चुका' नहीं है, बीता है. बीतकर चुपचाप बैठा है पास में.
बीते हुए दिन का हाथ पकड़कर मुस्कुराती शाम में प्रवेश करती हूँ. हम दोनों दौड़ते फिरते हैं... झर चुकी शाखों पर नन्ही कोपलों का जादू फैल चुका है... हम उस जादू के साये में भागते फिरते हैं यूँ ही, बेवजह, शाम कब रात हुई, रात कब आधी रात पता नहीं, इतना पता है कि पलाश अब भी हाथ में खिले हुए हैं, उन्हें सिरहाने रखकर नींद की ओर देखती हूँ. बीता हुआ दिन पास आ बैठता है, कहता है, 'बीत जाने के बाद भी इतना बचा हुआ था मैं? मालूम नहीं था...' उसकी आँखों में चमक है, मेरी आँखों में नींद।

(२५ फ़रवरी  २०१७ , दिल्ली )

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