एक-एक लम्हे को शिद्दत से जीती हूँ. राहों पर भागती फिरती हूँ. कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं है बस कि राहों पर भटक जाना चाहती हूँ. भटकने का सुख मामूली नहीं होता. कलाई पर बंधा वक़्त हैरत से मेरा मुंह देखता है, सोचता होगा शायद कि 'इस लड़की को अपने मुताबिक क्यों चला नहीं पाता. . . '
नींदे किसी गठरी में कैद हैं कि नींदों की कीमत पर जाग मिली है, दोस्तों का साथ मिला है, प्यार मिला है... सुबह पर मेरा कोई अख्तियार नहीं, रात पर है...
अनि की खिलखिलाहटों को जोर से थामे हुए हूँ, उसके साथ शरारतें करते हुए मानो अपने बचपन के किसी खाली हिस्से को जी रही होती हूँ. देर रात ऊँघती सड़कों पर झरती ओस की चादर लपेटे देवयानी के साथ घंटों टहलते हुए वक़्त का पता ही नहीं चलता। हम शब्द-शब्द झर रहे होते हैं...कहे सुने से पार कोई ख़ामोशी हर वक़्त हमें थामे होती है... चाँद इस कहन को सुन पाने की कोशिश में नाकाम होकर मुंह बनाता है... मैं उसकी बेचारगी पर हंसती हूँ...
बहुत कुछ सीखने को था इन लम्हों में, दिल हारने के लम्हे थे, बहुत सारा प्यार जीतने के... अनुभवों का एक नया संसार भी था...
सब साथ लेकर लौटते हुए छूटते हुए जयपुर के आसमान के रंग देखती हूँ... कानों में अनि का शहद से मीठा 'मासी...मासी...' का स्वर गूंजता है....तभी एक दोस्त का गुस्से में फोन आता है, ' हो कहाँ इत्ते दिनों से कि एक कॉल भी नहीं उठा सकती' मैं सोचती हूँ कि कहूँ, ' पता नहीं कहाँ हूँ.... लेकिन खुश हूँ ' दोस्त का गुस्सा देखकर सिर्फ हंस देती हूँ... शहर पर शहर छूटते जा रहे हैं. मन विगत और आगत के बीच अटका हुआ है कहीं.
नींदों को बड़ी शिकायत है मुझसे इन दिनों कि वक़्त कम दे पाती हूँ उन्हें आजकल...
(जयपुर डायरी)
सुन्दर लिखा है। कभी कभी ऐसे गुम हो जाना भी अच्छा होता है।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 24 फरवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह, बहुत सुन्दर
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