कुछ दिनों से अपने 'स' की तलाश में फिर से भटक रही हूँ. इस भटकन में सुख है. अकसर लगता है कि बस अब पहुँचने वाली हूँ, कहाँ पता नहीं लेकिन वहां शायद जहाँ इस भटकन से पल भर को राहत हो. राहत, क्या होती है पता नहीं... खिड़की के बाहर देखने पर पडोसी के घर के फूल नज़र आते हैं, वो राहत है, अपने पौधों में इस बार कलियाँ कम आई हैं इसकी चिंता है...वो जिसे अपना कहकर रोपा था, उसे सहेज नहीं पा रही हूँ शायद, वो जो कहीं और खिल रहा है वो अपना ही लग रहा है....ये अपना होता क्या है आखिर...वो जिसे सहेज के पास रख सकें या जो दूर से अपनी खुशबू, अपने होने से मुझे भर दे...
आज फिर 'यमन' शुरू किया...फिर से. मुझे इस राग के पास सुकून मिलता है इन दिनों. 'क्यों' पता नहीं. कभी ऐसा सुकून मालकोश के पास मिला करता था. तो क्या राग बदल गया, या मौसम, या मन का मौसम...उन्हू मौसम तो वही है...किसी कमसिन की पाज़ेब की घुँघरूओं सा. सरगोशियाँ करता, इठलाता, मुस्कुराता . राग भी वही है...यानि मुझे खुद से ही बात करनी चाहिए. कर ही रही हूँ. सारे जहाँ में बस एक 'स' नहीं मिलता. सब मिलता है. त्योहारों का मौसम है, बाज़ार सजे हैं...अक्टूबर का महीना है, आसमान से रूमानियत टपक रही है...अनचाहे मुस्कुराहटें घेर लेती हैं...लेकिन 'स' नहीं लग रहा. कल रात लगते लगते रह गया. ये तार झन्न से टूट गया...हमेशा टूटता है...तार बदल सकता था..लेकिन मन नहीं...तार बहुत हैं पास में, मन एक ही है बस.
सुबह के दोस्तों से मुखातिब होती हूँ, उन्हें कोई फ़िक्र नहीं...उन्हें बस दाना खाने से और दाना खाकर उड़ जाने से ही मतलब है..जाने उनका सुख दाना है या उड़ जाना, पर वो सुख में लगते हैं...सुख में लगना भी अजीब है...मैं भी लगती हूँ शायद, सबको लगती हूँ, खुद को भी...लेकिन हूँ क्या...अगर हूँ तो मेरा 'स' कहाँ गुम गया है. अगर वो इतना गैर ज़रूरी है तो उसे ढूंढ क्यों रही हूँ. पागलपन्ती ही तो है सब...कोई 'स' 'व' नहीं होता ज्यादा मत ढूंढ, सो जा चैन से, मन मसखरी करता है...हंसती हूँ...
शोर अच्छा नहीं लगता, मैं उससे कहती हूँ...तो कहाँ है शोर...शांति ही तो है...वो मुझसे कहता है...शांति बाहर है न, भीतर बहुत शोर है...बाहर से आने वाले शोर के रास्ते बंद करना जानती थी, सो कर लिए भीतर के शोर से मुक्ति के रास्ते तलाश रही हूँ...एक झुण्ड पंछियों का लीची के पेड़ से फुर्रर से उड़कर आसमान की ओर रवाना हुआ है...मेरा आसमान कहाँ है....
शान्ति भीतर ही मिलती है।
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