न जाने किस उम्र में कब उसने अपनी उंगली थमाई थी, बस इतना याद है कि उसकी पहली छुअन बचपन के किसी कोने में दर्ज हुई थी, तबसे आज तक अहसास बढ़ते गये, शिद्दत बढ़ती गई, प्यास बढ़ती गई। प्यास पढ़ने की। कविताएं पढ़ने की। एकाकी बचपन में कोई दोस्त अगर था तो बस किताबें थीं। कविता और कहानी का अंतर भी न पता था, तबसे कविता जी लुभाती है। हालांकि अंतर तो अब भी पता नहीं। जाने कहां-कहां मिल जाती है कविता उपन्यास मंे, कहानी में, बतकही में, आम की बौर में, सड़क पर, पगडंडी में, खेतों में कभी-कभी चमचम करते सुनहरे शहरों में भी।
इसी कविता प्रेम के चलते पिछले कुछ महीनों से कविता की बैठकी शुरू की। क से कविता। देहरादून में तीन दोस्त जमा हुए मैं, सुभाष रावत और लोकेश ओहरी। सोचा कि रोजमर्रा की भागदौड़ में कविताओं से वो जो एक दूरी सी बनने लगी है उस दूरी को कम करते हैं...मिलकर कुछ देर सुनते सुनाते हैं कविताएं...
न...न...न...हम तीनों दोस्तों में से कोई भी कवि नहीं है। मुझ पर छुटपुट ये आरोप लगते जरूर हैं लेकिन हूं मैं भी कविता प्रेमी ही अपने बाकी दोनों दोस्तों की तरह। कविता ही क्यों साहित्य, संस्कृति की उन तमाम धाराओं से हमारा लगाव है जो दरअसल मनुष्यता को गढ़ती हैं, उनके हक में खड़ी होती हैं, जो समूची धरती को भौगोलिक नक्शों, असलहों और राजनैतिक बयानों से बहुत दूर रखती है। कविता जो “मैं“ से मुक्त करती है और कवि को फक़ीर बनाती है।
लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि कबीर का दौर बीत चुका है। फकीर कहां रहे अब, कवि बचे हैं बहुत सारे। कभी-कभी लगता है कि इतने सारे कवि हंै कि कविता इन सबसे डरकर दूर कहीं जा छुपी है। चहुंओर मंच सजे हैं, अपनी-अपनी किताबें सर पर लादे तमगे गले में टांगे लोग आत्ममुग्धता में आकंठ पैबस्त हैं। खुद को और अपनी कविता को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने की अजीब सी कवायद चल पड़ी है। ऐसे में एक पाठक है बेचारा जो घबराया हुआ है। उसके पास भी है कुछ कहने को, वो कह नहीं पाता। किसको फुरसत है उसे सुनने की। पाठक हाशिए पर है। पाठक अपनी सरल सी अभिव्यक्ति के साथ उपेक्षित खड़ा है, उसकी अभिव्यक्ति की ओर किसी का ध्यान नहीं।
सोचती हूं कि क्या बिना मनुष्य हुए कवि हुआ जा सकता है? अगर आपकी बहुत अच्छी कविताएं किसी का चूल्हा जलाने के काम आएं तो आपको सुख होना चाहिए...बिना अपना नाम लिखे क्या आपमें अपनी कविताओं को आकाश में उछाल देने का साहस है? क्या सचमुच कविता लिखने के बाद, छपने के बाद, पुरस्कृत होने के बाद भीतर की विनम्रता, चुपके से किसी अंहकार में तब्दील हो गई है और लिखने वाले को पता भी नहीं चला...तो सचमुच ऐसे कवि और कविता दोनों की जरूरत न समाज को है न समय को।
संभवतः ऐसी उथल-पुथल रही होगी जिसके चलते एक लंबे समय से मैंने खुद को समेट लिया था, कहीं साहित्यिक जलसों में आना-जाना, मिलना-जुलना बंद, साहित्यिक पत्रिकाओं को से भी माफी मांग ली थी अरसे से। कभी किसी रोज कोई किताब उठाती बालकनी में धूप सेंकते हुए चिड़ियों के शोर के बीच पढ़ती, कभी नहीं भी पढ़ती। यात्राएं करती...पढ़ती...कभी नहीं भी पढ़ती। नदी के किनारे अकेले घंटों बैठकर चुपचाप किसी पहाड़ी को निहारती और कुछ कविताएं पढ़ती, कभी नहीं भी पढ़ती, कभी मीलों पैदल चलते हुए कोई कविता भीतर से गुजरती हुई मालूम होती, उसकी खुशबू सफर को आसान बना देती...एक अरसे से कविताएं इसी तरह साथ हैं...यकीन मानिए सुख है इनके संग इस तरह होने का। वो शोर नहीं करतीं मुझे पढ़ो, मुझे पढ़ो का, बल्कि कहती हैं मौसम जी ले पगली, मैं भी वहीं हूं। कभी भीतर की कोई पीड़ा, कोई बेचैनी उसके करीब ले जाकर खड़ा कर देती और वो सर पर हाथ फिरा देती।
इस बीच जब “क“ से कविता का विचार बना और सुभाष और लोकेश दोनों दोस्तों को बात जम गई तो यह विचार ही किसी कविता सा लगा कि पहाड़ के किसी कोने में रोजमर्रा की आपाधापी में से चंद लम्हे चुराकर अपनी पसंद की कविताएं सुनना, सुनाना...।
हम चल पड़े कविता का हाथ थामकर...कारवां अब बनने लगा है। लोग आते हैं, खुद। छूटते भी जाते हैं खुद। छूटने वालों को कुछ न जमता होगा, आने वालों को कुछ तो जमता होगा। जो भी हो, हमारी हथेलियों में कुछ अच्छी शामें ठहरने लगीं, कुछ ऐसी कविताओं से परिचय बढ़ने लगा जिन तक अभी पहुंचे न थे।
जब हमने “क“ से कविता के बारे में सोचा था तो यही कि इस कार्यक्रम को चारागाह नहीं बनने देंगे। चारागाह यानी मैं....मैं...मैं....मैं.....के शोर से दूर ही रखेंगे। जल्द ही समझ में आ गया था कि यह आसान नहीं होगा, लोगों के भीतर “मैं“ की खेती इस कदर हो चुकी है कि जाने कहां-कहां से, किस-किस रूप में वो बाहर आता है...पर हमने ठान लिया था चारागाह तो नहीं ही बनने देंगे।
कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं कोई शेष नहीं...सब कविता प्र्रेमी बस...इससे कोई समझौता नहीं...चाहे कोई रूठे, नाराज हो, चाहे अंत में हम तीन ही क्यों न बचें...
फिलहाल सफर चल रहा है, अच्छा चल रहा है। सुभाष इसे उत्तरकाशी, श्रीनगर और हल्द्वानी तक पहुंचा सके हैं। इस सफर में बहुत से अनुभव हो रहे हैं। वो भी सीखना है एक तरह का। लोगों के लिए पहले तो “अपनी कविताएं नहीं सुनाना है“ वाला “मैं“ उतारना ही मुश्किल था, वो उतरा जैसे-तैसे तो यह आग्रह झलकने लगे कि जो मेरी प्रिय है उसे कितनी तवज़्जो मिल रही है, मैं कितनी ज्यादा सुना सकूं।
“मैं कौन हूं...“ यह सवाल जो शायद अब तक खुद से कभी पूछा नहीं, लोगों को बताने आते तो लंबी फेहरिस्त निकलने लगी थी कि मैं ये हूं, मैं वो हूं, मैंने ये किया, मैंने वो किया। अक्सर सुझाव मिलते जो “क“ से कविता को किसी लेक्चर मोड की ओर ले जाते मालूम होते।
वरिष्ठों की वरिष्ठता छलकने के नये-नये रास्ते निकालती, लेकिन हम उन रास्तों के आगे हाथ गाये खड़े थे, खड़े हैं। यह बात सबको समझनी ही होगी कि “क“ से कविता की बैठकी सुनने का संस्कार है...एक-दूसरे की पसंद को एप्रिशिएट करने का भी। यह सिर्फ अपनी कविता न सुनाने भर का मामला नहीं है यह सचमुच धीरे-धीरे अपने “मै“ से निकलकर दूसरे को स्पेस देने, सुनने, समझने, एक-दूसरे की तरफ हाथ बढ़ाने का मामला है....
बैठकी का सुख है, खुद को भूलने का सुख होना...बैठकी का सुख है अच्छी कविताओं के करीब जा बैठना।
“क“ से कविता शायद उस “मैं“ को थोड़ा खुरच सके, उस “मैं“ के भीतर जो मासूम सा इंसान कहीं दुबक गया है एक रोज वो शायद बाहर आ सके....कोई बोझ न हो किसी पर....अपने नाम, अपने काम, अपनी पहचान, अपनी पसंद, नापसंद तक का कोई बोझ नहीं....ऐसे ही मुक्त माहौल में कविताओं के उड़ते फिरने की कामना है “क“ से कविता...
('क' से कविता छ महीने की यात्राः कुछ अहसास)
बहुत सुंदर पोस्ट
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