हमारा समाज, हमारा परिवेश हमें गढ़ते हैं। हम चाहें, न चाहें वो हमारे साथ चलते हैं...चलते रहते हैं। एक खाली कक्षा में सूनी आंखों वाली बच्ची अपनी ड्राइंग की काॅपी में जो लकीरें खींचती है वो महज तस्वीर नहीं है, उस बच्ची का पूरा संसार है...स्कूल, कक्षा, शिक्षक कुछ भी उस समूचे संसार से विरत नहीं है। खेल-कूद से दूर अगर कोई बच्चा चुपचाप बैठा है तो वह बहुत कुछ बयान कर रहा है...बिना बच्चों के मन से रिश्ता बनाये, बिना उनके संसार को समझे उनसे किस शिक्षा का आग्रह हम कर सकते हैं यह सवाल है। सरकारी स्कूलों के शिक्षक अक्सर कहते हैं, हम जो भी पढ़ाते हैं बच्चे घर जाकर किताबें तक नहीं पलटते, या घरवाले बच्चों पर ध्यान ही नहीं देते...लेकिन घरवालों के हालात तो ऐसे हों शायद कि पढ़ाई की बात उनके लिए किसी लक्ज़री सी मालूम होती हो, क्या पता। ऐसे में बच्चों के परिवार, परिवार के सदस्यों, समाज, हालात से इतर बच्चे को आइसोलेशन में देखकर कोर्स पूरा कराने की कवायद कारगर हो सकती है क्या यह सोचने की बात है। बच्चे के मन के संसार और उसके आसपास के बाहर के संसार तक पहुंचने के लिए हमें तमाम माध्यमों की जरूरत पड़ती है...फिल्म हंसा भी ऐसा ही एक माध्यम है...
उत्तराखंड के खूबसूरत दृश्यों और मौसमों वाली काॅपी में एक उदास पन्ना खुलता है। पन्ने पर उभरती हैं कुछ लकीरें....कोई धुंधली सी तस्वीर बनती है...क्लासरूम में आखिरी बची आखिरी बच्ची की आंखों से उतरकर वो तस्वीर जिन्दगी के रास्तों पर दौड़ने लगती है...भागने लगती है...फिल्म की शुरुआत बस यहीं से...इंतजार से भरी दो आंखें पूरे स्क्रीन पर फैलती हैं...तमाम सुंदर दृश्यों के बीच...पिता के इंतजार में रची-बसी आंखें...वो आंखें जिनमें जाते हुए पिता की पीठ दर्ज है...
खूबसूरत दृश्य, पहाड़ियां, सूर्योदय, फूलों से भरी डालियां और हंसा. हंसा एक बारह-चैदह बरस के बच्चे के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी है। हंसा के पिता लापता हैं। वो गांव छोड़कर चले गये हैं। शायद शहर। शायद बच्चों के लिए खूब सारे खिलौने और मिठाइयां लाने। शायद कर्ज में डूबे घर के लिए ढेर सारा पैसा कमाने। शायद...यह शायद फिल्म में लगातार मौजूद रहता है। हंसा की बड़ी बहन चीकू इस शायद से लगाताार संवाद करती है, उससे टकराती है। नाराज भी होती है।
यह उदासी की कहानी नहीं है। यह कहानी है जीवन में जबरन ठूंस दी गई या आ गिरी निराशा और मुश्किलों से पूरी हिम्मत के साथ टकराने की। मजलूमों का मजलूमों से अनजाने ही बन जाने वाले रिश्ते की कहानी है. कहानी है मासूम हंसा की शरारतों की। जिस दौर में बच्चे वीडियो गेम, मोबाइल ऐप्प में उलझे हैं अपना हंसा लाल गेंद के पीछे भागता फिरता है। फिल्म में बहुत संवाद नहीं हैं लेकिन कहन बहुत है। दृश्य, घटनाएं, भाव संवादों से ज्यादा मुखर हैं।
यह हालात के आगे घुटने न टेकने वाली चीकू की कहानी है...हंसा की शरारतों की कहानी है, पेड़ पर अटकी लाल गंेद के गिरने के साथ ही उदास आंखों में उभर आने वाली उम्मीद की कहानी है...यह कहानी है हम सबकी जो हर रोज हालात का सामना करते हुए कितनी ही बार निराशा से भर उठते हैं लेकिन भीतर से एक आवाज आती है...दोस्त चिंता नहीं, सब ठीक होगा...
प्रतिभा जी, आपके नाम के अनुसार ही आपने अपने ब्लाॅग पर पठनीय और ज्ञानवर्द्धक लेख प्रकाशित किए है। जिसके लिए आप बधाई की पात्र है। आपके ब्लाॅग को हमने यहां पर Best Hindi Blogs लिस्टेड किया है।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
i Blogger ji bahut shukriya aapka.
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