जबसे समझ लिया सौन्दर्य का असल रूप
तबसे उतार फेंके जेवरात सारे न रहा चाव, सजने सवरने का
न प्रशंसाओं की दरकार ही रही
नदी के आईने में देखी जो अपनी ही मुस्कान
तो उलझे बालों में ही संवर गयी
खेतो में काम करने वालियों से
मिलायी नजर
तेज़ धूप को उतरने दिया जिस्म पर
न, कोई सनस्क्रीन भी नहीं.
रोज सांवली पड़ती रंगत
पर गुमान हो उठा यूँ ही
तुम किस हैरत में हो कि
अब कैसे भरमाओगे तुम हमें...
- प्रतिभा कटियार
'सुंदर' शब्द समूची कायनात के लिए जो अर्थ रचता है वो स्त्री के वजूद से जुड़ते ही जाने कैसे उलझने लगता है। स्त्री के वजूद से जुड़ते ही सुंदरता नैन नक्श, लंबे बाल, गोरे रंग, बड़ी.बड़ी आंखें, सुराहीदार गर्दन, हिरनी जैसी चाल, गुलाब की पंखुड़ी से होंठ (और न जाने क्या.क्या) इर्द.गिर्द अटकने लगता है. सौंदर्य के मानक और उनका स्त्रियों से जुडना इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया कि हर स्त्री अपने आपको इन्हीं मानकों के इर्द-गिर्द पहुंचा पाने की कवायद में जुट गई। हिंदी फिल्मों ने, गानों ने, मीडिया ने और बाजार ने इन मानकों को सरिया सीमेंट लगा-लगाकर खूब मजबूत किया। किसी ने अगर सौंदर्य के इन मानकों से थोड़ा आगे बढ़कर स्त्री को देखा तो घर के काम में निपुण, मदुभाषी, ममतालु, समर्पण को सुख समझने वाले व्यक्तित्व के रूप में देखा गया।
शादी के लिए लड़कियों को बचपन से ही तैयार किया जाता, कैसे हंसना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है,ससुराल जाओगी ते सास क्या कहेंगी, मां ने लड़की को कुछ सिखाया ही नहीं जैसी परवरिश। नतीजा ये कि सौंदर्य और घर के कामों में निपुण होने के अच्छी लड़की वालेे इन मानकों में उलझे-उलझे ही उनका तमाम जीवन बीतने लगा। यह पितृसत्ता ही है जिसने सदियों से स्त्रियों के दैहिक सौंदर्य, आभूषणों, बनाव-श्रृंगार आदि को सलीब सा लाद दिया उन पर, जिसे ढोते हुए वे मुस्कुरा रही हैं। आज भी जबकि हम कहते हैं कि हम काफी आधुनिक हो गये हैं, सौंदर्य के इन मानकों में उलझने से बच नहीं पाते। कितनी ही संभावनाएं पितृसत्ता के इस मकड़जाल में उलझकर रह गई। कितनी ही प्रतिभाओं को उनके सौंदर्य के बरक्स आंककर उनके काम को कमतर साबित किया गया।
सबसे दुःखद यह है कि यह सब जिस ढंग से हुआ, जितने महीन रेशे हैं इस पूरे चक्रव्यूह के कि स्त्रियां खुद भी अक्सर समझ नहीं पातीं कि उनके सौंदर्य की प्रशंसा करके उनके पूरे व्यक्तित्व को एक छोटे से घेरे में समेटकर रख दिया जा रहा है। एक ही तीर से दो निशाने साधते हुए जो बकौल मानक तनिक कम सुंदर हैं उनके भीतर जीवन भर की हीन भावना भर दी जाती रही और जो ज्यादा सुंदर हैं वो आत्ममुग्धता और प्रशंसाओं में घिर जाती हैं। कितनी ही लड़कियां अपने सांवले रंग के कारण रातों को छुप.छुपकर रोती रहीं और उम्र भर अपने रंग के लिए कोसी जाती रहीं। जाने कितनी ही लड़कियां उम्र भर अपने सौंदर्य, अपने रंग, अपनी आखों, अपने लंबे, कद पे इतराती रहीं।
जिस सौंदर्य से जीवन खिल उठना था, महक उठना था उसने न सिर्फ तमाम संभावनाओं का अंत किया बल्कि कहीं सुपीरियटी तो कहीं इनफीरियटी काॅम्पलेक्स में समेटकर रख दिया। जब आधी आबादी की संभावनाएं यूं समेट दी जाएं तो दुनिया जहां के तमाम अवसरों, तमाम संभावनाओं पर एकछत्र राज्य किसका हुआ? पितृसत्ता ने कितने महीन रेशों से आधी आबादी की जड़ों को कमजोर किया है कि जिनके साथ नाइंसाफी हुई उन्हें भी इसकी खबर न हुई।
मुझे याद है बचपन से ही मुझे अपने सुंदर न होने का भान हो गया था। लेकिन मैंने इसके पहले कि यह मेरा काॅम्पलेक्स बनता मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने पर लगाया। सुंदर दिखना, सजना संवरना मुझे लगता था ये मेरे लिए है ही नहीं। यही वजह थी कि किसी भी पार्टी में जाने की बात सुनकर आंसू आ जाते थे। उस नन्ही उम्र के मन में उपजा कोई काॅम्पलेक्स ही रहा होगा शायद जो आंसू बन बहता होगा।
स्त्रियों के सौंदर्य के मामलों की पर्तें खोलने के लिए एक और निजी अनुभव साझा करना जरूरी लग रहा है। वो बात जो कहती तो रही हूं पुख्ता ढंग से, जीती भी रही लेकिन लिखा-पढ़ी में कभी आई नहीं। 17 बरस की उम्र में मेरा एक बड़ा एक्सीडेंट हुआ। मौत के मुंह से बचकर वापस आने जैसा अनुभव। सालहा अस्पतालों, डाॅक्टरों, दवाइयों के जाल और एक कदम भी जमीन पर रखने की मोहताजगी के बाद जब उठी तो समाज की चिंता में मुखरता से यह बात आती कि चलो अच्छा हुआ चेहरे पे कोई निशान नहीं आया। लेकिन यह चिंता भी कि मेरे बांयें हाथ में आये 120 टांकों के निशान मेरी शादी में मुश्किल खड़ी करेंगे। अजीब बेचारगी से मुझे देखा जाने लगा। मेरे घरवाले लाख रैडिकल रहे लेकिन समाज का दबाव उन्हें भी प्लास्टिक सर्जरी के लिए उकसाने लगा। पहली बार मैंने किसी बात का मुखर विरोध किया था यह कहकर कि जो लड़का मेरी देह पर लगे कुछ चोट के निशान स्वीकार नहीं कर सकेगा, वो मेरे मन की मुश्किलों को कैसे समझ पायेगा भला। ऐसे लड़के को तो मैं खुद ही अस्वीकार कर दूंगी, कोई प्लास्टिक सर्जरी नहीं होगी, वो निशान अब भी हाथ पर मुस्कुराते हैं, अब भी जब-तब उसे कुछ कमेंट्स मिलते हैं, मुझे कभी बेचारगी से देखा जाता है कभी ये सुझाव दिए जाते हैं कि अब भी प्लास्टिक सर्जरी करवा लो। जबकि मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं कि दरअसलए सर्जरी की जरूरत तो जे़हनी तौर पर बीमार इस समाज को है जो सौंदर्य को इतने सीमित अर्थों में देख पाता है। खासकर स्त्रियों के बरअक्स।
अब भी अस्पतालों में नर्सें बेटी होने की खबर के साथ खूब गोरी बेटी हुई है कहते हुए अतिरिक्त उत्साहित होती हैं। दूसरी तरफ 'एक तो बेटी ऊपर से रंग भी दबा हुआ' कहकर सर झुकाये बैठे घरवालों भी नज़र आते हैं.
ब्यूटी पार्लरों का बढ़ता शिंकजा, सात दिन में गोरा होने वाली क्रीम का बाजार, करवाचौथ पर सर से पांव तक सजा-संवारकर हर लड़की को सुंदरता के मानकों में जड़ देने की कोशिश के चलते अक्सर लोग यह कहना भूल ही जाते हैं कि आपका काम बहुत सुंदर है, आपका लिखा, आपकी ड्राइविंग, आपका बंदूक चलाना, हवाई जहाज उड़ाना, आपका धान रोपना, फसल काटना कितना सौंदर्य है इनमें, कितनी खुशबू।
स्त्रियों को अपने भीतर के इस सौंदर्य को पहले खुद महसूस करना, उसे निखारने की कोशिश करना और शारीरिक सौंदर्य पर आत्ममुग्धता या हीनता से आजाद होना जरूरी है। जरूरी है दैहिक सौंदर्यों पर मिलने वाले काॅम्प्लीमेेंट्स को सर पर चढ़ाने से बचना और इंतजार करना अपनी दूसरी क्षमताओं पर मिलने वाले काॅम्पलीमेंटस का। सौंदर्य बहुत व्यापक शब्द है. सौंदर्यजाल से मुक्त होकर ही सौंदर्य की उस व्यापकता तक स्वयं स्त्री भी पहुंच सकती है और समूची सृष्टि भी, वो भी जिन्होंने स्त्रियों को महज देह के सौंदर्य में बांधकर रख दिया है....
'सुंदर' शब्द समूची कायनात के लिए जो अर्थ रचता है वो स्त्री के वजूद से जुड़ते ही जाने कैसे उलझने लगता है। स्त्री के वजूद से जुड़ते ही सुंदरता नैन नक्श, लंबे बाल, गोरे रंग, बड़ी.बड़ी आंखें, सुराहीदार गर्दन, हिरनी जैसी चाल, गुलाब की पंखुड़ी से होंठ (और न जाने क्या.क्या) इर्द.गिर्द अटकने लगता है. सौंदर्य के मानक और उनका स्त्रियों से जुडना इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया कि हर स्त्री अपने आपको इन्हीं मानकों के इर्द-गिर्द पहुंचा पाने की कवायद में जुट गई। हिंदी फिल्मों ने, गानों ने, मीडिया ने और बाजार ने इन मानकों को सरिया सीमेंट लगा-लगाकर खूब मजबूत किया। किसी ने अगर सौंदर्य के इन मानकों से थोड़ा आगे बढ़कर स्त्री को देखा तो घर के काम में निपुण, मदुभाषी, ममतालु, समर्पण को सुख समझने वाले व्यक्तित्व के रूप में देखा गया।
शादी के लिए लड़कियों को बचपन से ही तैयार किया जाता, कैसे हंसना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है,ससुराल जाओगी ते सास क्या कहेंगी, मां ने लड़की को कुछ सिखाया ही नहीं जैसी परवरिश। नतीजा ये कि सौंदर्य और घर के कामों में निपुण होने के अच्छी लड़की वालेे इन मानकों में उलझे-उलझे ही उनका तमाम जीवन बीतने लगा। यह पितृसत्ता ही है जिसने सदियों से स्त्रियों के दैहिक सौंदर्य, आभूषणों, बनाव-श्रृंगार आदि को सलीब सा लाद दिया उन पर, जिसे ढोते हुए वे मुस्कुरा रही हैं। आज भी जबकि हम कहते हैं कि हम काफी आधुनिक हो गये हैं, सौंदर्य के इन मानकों में उलझने से बच नहीं पाते। कितनी ही संभावनाएं पितृसत्ता के इस मकड़जाल में उलझकर रह गई। कितनी ही प्रतिभाओं को उनके सौंदर्य के बरक्स आंककर उनके काम को कमतर साबित किया गया।
सबसे दुःखद यह है कि यह सब जिस ढंग से हुआ, जितने महीन रेशे हैं इस पूरे चक्रव्यूह के कि स्त्रियां खुद भी अक्सर समझ नहीं पातीं कि उनके सौंदर्य की प्रशंसा करके उनके पूरे व्यक्तित्व को एक छोटे से घेरे में समेटकर रख दिया जा रहा है। एक ही तीर से दो निशाने साधते हुए जो बकौल मानक तनिक कम सुंदर हैं उनके भीतर जीवन भर की हीन भावना भर दी जाती रही और जो ज्यादा सुंदर हैं वो आत्ममुग्धता और प्रशंसाओं में घिर जाती हैं। कितनी ही लड़कियां अपने सांवले रंग के कारण रातों को छुप.छुपकर रोती रहीं और उम्र भर अपने रंग के लिए कोसी जाती रहीं। जाने कितनी ही लड़कियां उम्र भर अपने सौंदर्य, अपने रंग, अपनी आखों, अपने लंबे, कद पे इतराती रहीं।
जिस सौंदर्य से जीवन खिल उठना था, महक उठना था उसने न सिर्फ तमाम संभावनाओं का अंत किया बल्कि कहीं सुपीरियटी तो कहीं इनफीरियटी काॅम्पलेक्स में समेटकर रख दिया। जब आधी आबादी की संभावनाएं यूं समेट दी जाएं तो दुनिया जहां के तमाम अवसरों, तमाम संभावनाओं पर एकछत्र राज्य किसका हुआ? पितृसत्ता ने कितने महीन रेशों से आधी आबादी की जड़ों को कमजोर किया है कि जिनके साथ नाइंसाफी हुई उन्हें भी इसकी खबर न हुई।
मुझे याद है बचपन से ही मुझे अपने सुंदर न होने का भान हो गया था। लेकिन मैंने इसके पहले कि यह मेरा काॅम्पलेक्स बनता मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने पर लगाया। सुंदर दिखना, सजना संवरना मुझे लगता था ये मेरे लिए है ही नहीं। यही वजह थी कि किसी भी पार्टी में जाने की बात सुनकर आंसू आ जाते थे। उस नन्ही उम्र के मन में उपजा कोई काॅम्पलेक्स ही रहा होगा शायद जो आंसू बन बहता होगा।
स्त्रियों के सौंदर्य के मामलों की पर्तें खोलने के लिए एक और निजी अनुभव साझा करना जरूरी लग रहा है। वो बात जो कहती तो रही हूं पुख्ता ढंग से, जीती भी रही लेकिन लिखा-पढ़ी में कभी आई नहीं। 17 बरस की उम्र में मेरा एक बड़ा एक्सीडेंट हुआ। मौत के मुंह से बचकर वापस आने जैसा अनुभव। सालहा अस्पतालों, डाॅक्टरों, दवाइयों के जाल और एक कदम भी जमीन पर रखने की मोहताजगी के बाद जब उठी तो समाज की चिंता में मुखरता से यह बात आती कि चलो अच्छा हुआ चेहरे पे कोई निशान नहीं आया। लेकिन यह चिंता भी कि मेरे बांयें हाथ में आये 120 टांकों के निशान मेरी शादी में मुश्किल खड़ी करेंगे। अजीब बेचारगी से मुझे देखा जाने लगा। मेरे घरवाले लाख रैडिकल रहे लेकिन समाज का दबाव उन्हें भी प्लास्टिक सर्जरी के लिए उकसाने लगा। पहली बार मैंने किसी बात का मुखर विरोध किया था यह कहकर कि जो लड़का मेरी देह पर लगे कुछ चोट के निशान स्वीकार नहीं कर सकेगा, वो मेरे मन की मुश्किलों को कैसे समझ पायेगा भला। ऐसे लड़के को तो मैं खुद ही अस्वीकार कर दूंगी, कोई प्लास्टिक सर्जरी नहीं होगी, वो निशान अब भी हाथ पर मुस्कुराते हैं, अब भी जब-तब उसे कुछ कमेंट्स मिलते हैं, मुझे कभी बेचारगी से देखा जाता है कभी ये सुझाव दिए जाते हैं कि अब भी प्लास्टिक सर्जरी करवा लो। जबकि मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं कि दरअसलए सर्जरी की जरूरत तो जे़हनी तौर पर बीमार इस समाज को है जो सौंदर्य को इतने सीमित अर्थों में देख पाता है। खासकर स्त्रियों के बरअक्स।
अब भी अस्पतालों में नर्सें बेटी होने की खबर के साथ खूब गोरी बेटी हुई है कहते हुए अतिरिक्त उत्साहित होती हैं। दूसरी तरफ 'एक तो बेटी ऊपर से रंग भी दबा हुआ' कहकर सर झुकाये बैठे घरवालों भी नज़र आते हैं.
ब्यूटी पार्लरों का बढ़ता शिंकजा, सात दिन में गोरा होने वाली क्रीम का बाजार, करवाचौथ पर सर से पांव तक सजा-संवारकर हर लड़की को सुंदरता के मानकों में जड़ देने की कोशिश के चलते अक्सर लोग यह कहना भूल ही जाते हैं कि आपका काम बहुत सुंदर है, आपका लिखा, आपकी ड्राइविंग, आपका बंदूक चलाना, हवाई जहाज उड़ाना, आपका धान रोपना, फसल काटना कितना सौंदर्य है इनमें, कितनी खुशबू।
स्त्रियों को अपने भीतर के इस सौंदर्य को पहले खुद महसूस करना, उसे निखारने की कोशिश करना और शारीरिक सौंदर्य पर आत्ममुग्धता या हीनता से आजाद होना जरूरी है। जरूरी है दैहिक सौंदर्यों पर मिलने वाले काॅम्प्लीमेेंट्स को सर पर चढ़ाने से बचना और इंतजार करना अपनी दूसरी क्षमताओं पर मिलने वाले काॅम्पलीमेंटस का। सौंदर्य बहुत व्यापक शब्द है. सौंदर्यजाल से मुक्त होकर ही सौंदर्य की उस व्यापकता तक स्वयं स्त्री भी पहुंच सकती है और समूची सृष्टि भी, वो भी जिन्होंने स्त्रियों को महज देह के सौंदर्य में बांधकर रख दिया है....
bahut sundar paribhasha me gadha hai soundarya ko ....sundar alekh
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक 'डरावनी' कहानी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सार्थक लेख की प्रस्तुति। नारी शक्ति को समर्पित रचना।
ReplyDeleteएक नारी के वास्तविक सौंदर्य तक तो कोई पहुँच ही नहीं पाता फिर उसे एप्रीशिएट करने की समझ कहाँ से विकसित कर पायेगा ! यह सारी कवायद सिर्फ सतही लीपापोती तक ही सीमित रह जाती है ! बहुत ही बढ़िया आलेख ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteGreat Thanks !
ReplyDeleteJagruk Times
आपकी इस पोस्ट से मैं भी अतीत में चली गई ॥शायद मेरे रुके ब्लॉग को गति दे सकूँ ...
ReplyDelete