मैं अपनी भावनाओं के अंतिम छोर पर खड़ी हूं। न मुझे अब अंदर से कुछ महसूस होता है न बाहर से। अगर संक्षेप में कहूं तो मैं एक पुरानी घिस चुकी किसी स्वचालित मशीन के जैसी हो चुकी हूं। रोजमर्रा की जरूरतों की फेहरिस्त ने मेरे दिमाग को खत्म कर दिया है। मैं मेयुडन और विज्नोरी में एक आम गृहिणी की जिंदगी जी ही चुकी हूं। घर के सारे काम करना, अब भी वही कर रही हूं। घर के सारे काम जो मुझे आते हैं, मुझे नहीं आते हैं सब। जो मुझे एकदम पसंद नहीं। हर वक्त घर के कामों में, चिंताओं में उलझे रहना, सुबह से रात तक बस खटते रहना...मैं यह सब कर रही हूं। चाहते न चाहते...मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। बस जो काम मैं नहीं कर पा रही हूं वो यह कि मैं हफतों कुछ लिख नहीं पाती हूं....लेकिन कौन इसे जरूरी काम समझता है...कौन...
- मरीना त्स्वेतायेवा की डायरी, १९३१
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ReplyDeleteProf Varyam Singh has given ur ref.
Good luck,
Charumati