ये रंगों के रंग बदलने के दिन हैं। हरे को हरा हुए बहुत दिन हो गए थे तो उसने अंगड़ाई लेकर कत्थई होने का मन बना लिया। भूरा या लाल होने के बारे में उसने सोचा नहीं। पीले के बारे में उसने सोचा जरूर था लेकिन पीले रंग पर रुकने का उसका मन नहीं किया।
आसमान से रोज एक दिन टपकता है और रंगों के आंचल में जाकर टंक जाता है....कोई दिन गुलाबी रंग का उगता है तो कोई धानी रंग का। कोई दिन सुर्ख लाल तो कोई दिन सतरंगी भी होता है....कभी-कभी कोई दिन बेरंग भी होता है। पर इधर कुछ रोज से खिले रंगों वाले दिन आसमान से उतर रहे हैं।
वैसे ये रंगों के रूप बदलने के दिन भी हैं। वो लाल, पीले, हरे, नीले नहीं रहे वो संख्या होने लगे हैं। 300, 400, 500, 600...जब से रंग संख्या होने लगे हैं तबसे संख्याओं से प्यार होने लगा है। अब संख्या में रंग दिखने लगे हैं। शाखों पर अंक मुस्कुराते हैं। कैनवास पर दौड़ लगाते फिरते हैं दिल लुभाने वाले रंग....
अरे हां, मैं बताना ही भूल ही गई पिछले कुछ दिनों से रंगों ने सुरों से दोस्ती कर ली है। रियाज के वक्त रंग बजते हैं इन दिनों। सुर चुपचाप कभी कैनवास पर सजते है तो कभी शाखों पर झूमते नजर आते हैं...वो आकृतियां भी धारण करते हैं। कभी चांद बन जाते हैं तो कभी सूरज, कायनात के हर अक्स में ढलते हैं रंग बस एक इंद्रधनुष ही कबसे खाली पड़ा है. रंग सब भागते फिरते हैं यहां-वहां। ये रंगों की शरारतों के दिन हैं।
उफ्फ, ये रंगों को क्या हो गया है इन दिनों देखो तो कैसे नन्ही किलकारियों में जा छुपे हैं, गालों पे ठहरता कोई रंग तो कोई आंखों में जाकर बैठा है। कोई रंग चुप की चादर ओढ़कर सर्द रातों के लिहाफ में जा दुबका है तो कोई रंग आवाजों के दरीचों से झांकता फिरता है...सर्द रातों में फुटपाथों पर सिकुड़े हुए करवटें बदलता है एक स्याह रंग तभी चुपके से बंद आंखों में जाकर छुप जाता है उम्मीद का खुशनुमा सा रंग...
ये क्या हो गया है इन दिनों रंगों को कि सब के सब उठकर चल दिये हैं अपने आशियाने से। वो कहीं भी मिलते हैं हमसे बस कि वहीं नहीं मिलते जहां उन्हें हम ढूंढने जाते हैं...
सुनो...हरा अब हरा नहीं रहा...कुछ शब्द टकराते हैं कानों से...सुर्ख रंग के शब्द...
वैसे ये रंगों के रूप बदलने के दिन भी हैं। वो लाल, पीले, हरे, नीले नहीं रहे वो संख्या होने लगे हैं। 300, 400, 500, 600...जब से रंग संख्या होने लगे हैं तबसे संख्याओं से प्यार होने लगा है। अब संख्या में रंग दिखने लगे हैं। शाखों पर अंक मुस्कुराते हैं। कैनवास पर दौड़ लगाते फिरते हैं दिल लुभाने वाले रंग....
अरे हां, मैं बताना ही भूल ही गई पिछले कुछ दिनों से रंगों ने सुरों से दोस्ती कर ली है। रियाज के वक्त रंग बजते हैं इन दिनों। सुर चुपचाप कभी कैनवास पर सजते है तो कभी शाखों पर झूमते नजर आते हैं...वो आकृतियां भी धारण करते हैं। कभी चांद बन जाते हैं तो कभी सूरज, कायनात के हर अक्स में ढलते हैं रंग बस एक इंद्रधनुष ही कबसे खाली पड़ा है. रंग सब भागते फिरते हैं यहां-वहां। ये रंगों की शरारतों के दिन हैं।
उफ्फ, ये रंगों को क्या हो गया है इन दिनों देखो तो कैसे नन्ही किलकारियों में जा छुपे हैं, गालों पे ठहरता कोई रंग तो कोई आंखों में जाकर बैठा है। कोई रंग चुप की चादर ओढ़कर सर्द रातों के लिहाफ में जा दुबका है तो कोई रंग आवाजों के दरीचों से झांकता फिरता है...सर्द रातों में फुटपाथों पर सिकुड़े हुए करवटें बदलता है एक स्याह रंग तभी चुपके से बंद आंखों में जाकर छुप जाता है उम्मीद का खुशनुमा सा रंग...
ये क्या हो गया है इन दिनों रंगों को कि सब के सब उठकर चल दिये हैं अपने आशियाने से। वो कहीं भी मिलते हैं हमसे बस कि वहीं नहीं मिलते जहां उन्हें हम ढूंढने जाते हैं...
सुनो...हरा अब हरा नहीं रहा...कुछ शब्द टकराते हैं कानों से...सुर्ख रंग के शब्द...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (09-01-2014) को चर्चा-1487 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मन का एक रंग पाला था,
ReplyDeleteछिटकन कितनी व्यापक है,
ज़िंदगी के रंगों से से सजी रंगीन भाव अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteरंगों की रंगोली। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रंगीन प्रस्तुति...
ReplyDeleteसुन्दर प्रवाह वाली रचना
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