सुबह से तीन बार अखबारों को उलट-पुलटकर रख चुकी हूं। पढे़ हुए अखबारों में भी हमेशा कुछ न कुछ पढ़ने को छूट ही जाता है। हालांकि न पढ़ो तो भी कुछ नहीं छूटता ये अलग बात है। हर छूटी हुई चीज अपनी ओर शिद्दत से पुकारती है। शायद इसीलिए सुबह से तीन कप चाय से कलेजा जला चुकने के बाद भी घूमफिर कर अखबार उठा लेना किसी ढीठता सा ही लगता है।
कभी-कभी कैसे हो जाते हैं हम, जो एकदम नहीं करना चाहते उसमें ही खुद को झोंक देते हैं। जी-जान से। फिर उस न चाहने वाले काम में उलझे-उलझे भीतर ही भीतर कुछ रिसने लगता है। बाहर से काम के नतीजे तो अच्छे आ रहे होते हैं लेकिन अंदर से जो रिसाव है वो उस अच्छे को चिढ़कर देखता है। उस चिढ़कर देखने के बाद हम खुद को और ज्यादा झोंकने लगते हैं।
इस लड़ाई में हमें मजा आने लगता है। इस चिढ़ने में भी। सफलता और चिढ़ एक साथ बढ़ने लगती हैं। मुस्कुराहटों की तादाद एकदम से बढ़ जाती है कभी-कभी खिलखिलाहटों और कभी तो ठहाकों तक जा पहुंचती है। चिढ़ संकुचित होने लगती है। उसका आकार छोटा होता जाता है और गहनता बढ़ती जाती है। उसका कसाव मुस्कुराहटों के एकदम अंदर वाली पर्त में अपनी जगह बनाने लगता है। धीरे-धीरे उसका कसाव संपूर्ण जीवन में अपना कसाव बढ़ाने लगता है। यह तरह-तरह से दिखता है। कभी ज्यादा खुशियों, ज्यादा काम के बीच। कभी कुछ न करने या न कर पाने के आलसीपन या तकलीफ के बीच और कभी-कभार लंबे मौन के बीच खिंची किसी स्याह लकीर की तरह।
लकीरें... आजकल कागज पर भी खूब दौड़ती फिरती हैं। ठीक उसी तरह जैसे बचपन में पेंसिल लेकर पूरे कागज को गोंचने के लिए दौड़ती फिरती थीं। वो शायद पढ़ने का मन न होने पर होता होगा। या फिर किसी से नाराज होने पर। या अपनी कोई इच्छा पूरी न होने पर भी शायद। हमारे बचपन को नाराजगियां जाहिर करने की आजादी कहां थी। खैर, आजकल चिढ़ को थोड़ी रिसपेक्ट दे रखी है मैंने। उसकी सुनती हूं, कहती कुछ नहीं। कोशश करती हूं उसकी वजह समझ सकूं। काम करती हूं लेकिन उसे पलटकर देखने का मन नहीं करता। कुछ भी पलटकर देखने का मन नहीं करता। यहां तक दोपहर आते-आते सुबह की तरफ देखने का मन नहीं करता।
कोरे कागजों पर ढेर सारी लकीरें उगा रखी हैं। एक लकीर दूसरी को काटती है। दूसरी तीसरी को। तीसरी लकीर चौथी को काटती और इस तरह कोई लकीर सौवीं लकीर को भी काटती है।
इन कटी हुई लकीरों में बहुत सारी नई लकीरों का अक्स उभरता है। वो अक्स जाना-पहचाना सा लगता है। हालांकि उन नई लकीरों को मैंने नहीं बनाया उन्होंने खुद जन्म लिया है।
खूबसूरत मौसम जिस तरह आहिस्ता-आहिस्ता करीब आ रहा है, उसे छूने को जी चाहता है। ढेर बारिषों के बाद धूप के टुकड़े पकड़ने को जी चाहता है। बहुत सीलन भर गई है हर तरफ, अंदर बाहर, अखबारों के अंदर भी....बहुत धूप चाहिए। तरह-तरह की धूप चाहिए। बहुत उजाला चाहिए....ढेर सारा उजाला। खिड़की के सारे पर्दे हटा देने पर कमरे रोशनी से नहा जाते हैं....काश हर अंधेरे को दूर करने के लिए कुछ पर्दे होते, जिन्हें इतनी ही आसानी से हटाया जा सकता। अखबार को फिर से टेबल से उठाकर सोफे पर रख देती हूं। रोशनी बहुत चाहिए सच्ची...
दिन में किसी बच्चे ने धूप के कुछ टुकड़े दिए थे। प्राइम टाइम देखते हुए उन्हें अपने पर्स में तलाश रही हूं...
कभी-कभी कैसे हो जाते हैं हम, जो एकदम नहीं करना चाहते उसमें ही खुद को झोंक देते हैं। जी-जान से। फिर उस न चाहने वाले काम में उलझे-उलझे भीतर ही भीतर कुछ रिसने लगता है। बाहर से काम के नतीजे तो अच्छे आ रहे होते हैं लेकिन अंदर से जो रिसाव है वो उस अच्छे को चिढ़कर देखता है। उस चिढ़कर देखने के बाद हम खुद को और ज्यादा झोंकने लगते हैं....
ReplyDeletekya baat hai!!!
नमस्कार आपकी यह रचना कल शनिवार (05-10-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteधूप के टुकडे ही वह रोशनी है जिसे हम ढूंढते हैं अखबारों में भी और जीवन में भी।
ReplyDeleteaap ke vichar antraatma ki sarita se nikal rahe hai
ReplyDeleteaap ke vichar antaraatma ki sarita se nikal rahe hai
ReplyDeleteकभी खत्म न हो ये शब्द बस पढ़ते रहने का मन हो रहा है.. मेरे ब्लाग पर पधारेँ मुझे खुशी होगी www.omjaijagdeesh.blogspot.com
ReplyDeleteसमाचारों के तथ्य में जीवन का अर्धसत्य उलझा देने का हमारा मन।
ReplyDeleteदिन में किसी बच्चे ने धूप के कुछ टुकड़े दिए थे। प्राइम टाइम देखते हुए उन्हें अपने पर्स में तलाश रही हूं...
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वो जो बच्चे ने दिये थे सबसे ज़्यादा अहम हैं धूप के वही टुकडे