Tuesday, April 2, 2013

एक जंगल में मैं थी, एक जंगल मुझमें था...



रास्ते नये नहीं थे. बस अरसे से रास्तों ने पुकारा नहीं था. चलने का जी चाहता तो था लेकिन रास्तों की पुकार का इंतजार था। तो चलने की ख्वाहिशों को और पैरों के भंवर को हथेलियों में समेटकर धूप और छाया के ठीक बीच में खुद को रख देते और वक्त की शाख से गिरते लम्हों को चुपचाप देखते रहते. ऐसे में कभी-कभी नींद सर पर हाथ फिराती और ख्वाब की कोई खिड़की धीरे से खुलती.

वो भी ऐसा ही एक दिन था. पंडित शिवकुमार शर्मा ने अपने संतूर से दुनिया भर के झरनों और नदियों को कमरे में इकट्ठा कर दिया था. धूप और छांव पक्की सहेलियों की तरह एक-दूसरे का हाथ थामे कुछ कह सुन रही थीं. तभी आसपास एक जंगल उग आया. जंगल की खुशबू  में डूबने का आनंद समंदर की लहरों में सिमट जाने के आनंद जैसा ही पुरक कशिश होता है. उतना ही सघन आनंद जैसा तेज धूप में नंगे पांव दौड़ते हुए महबूब के पास जाने का होता है.

जंगलों में कितना आकर्षण  होता है. मैं हमेशा  सोचती हूँ कि जंगल ऐसा हो कि उससे बाहर जाने के सारे रास्ते गुम हो जाएं...रौशनी के गांव का रास्ता उस जंगल से होकर जाता हो लेकिन उस जंगल में गुम जाने के बाद रौशनी की दरकार भी न रहे. मैंने जंगल के हर पेड़ को गले लगाया, हर पत्ती को चूमा, जुगनुओं को हथेलियों पर लिया और जंगल की समूची खुशबू को दुपट्टे में बांध लिया...एक जंगल में मैं थी, एक जंगल मुझमें था. हथेलियों पर जुगनू थे और पलकों पर खुशबू। असीम शांत से उस मंजर में एक शोर घुला था. जंगल की खुशबू  का शोर. गुलजार साब से शब्द उधार लूं तो बात पूरी हो कि खुशबू  चुप ही नहीं हो रही थी. और खुशबू  का यह शोर भीतर के कोलाहल को विराम दे रहा था. जिंदगी को उसके अर्थ आंसू और मुस्कान में नहीं मिलते इसलिए आंसू और मुस्कान की ओर जाने वाली सड़कों पर चलने से छूटना ही सही राह की और प्रस्थान है शायद.

अभी इसी उहापोह में उलझी थी कि तभी बादल का एक टुकड़ा सर पर हाथ फिराते हुए निकला...वो जाता रहा मैं उसे देखती रही....वो मुस्कुराकर बोला...तेरा रास्ता सही है...ये सड़क न आंसू की ओर जाती है न मुस्कान की ओर यह जिंदगी की ओर जाती है...सुख और दुख जिंदगी में होते हैं जिंदगी नहीं होते....उसे जाते हुए देखती रही...देखती रही...वो दूर किसी पहाड़ी पर जा टिका था...लेकिन पलकों में जो छुप के बैठा था वा कौन था?

धूप और छांव के बीच करवट लेते हुए अपने भीतर के जंगल की एक टहनी तोड़ती हूं...वो जो बीत रहा था वो सपना नहीं था, वो जो दूर गया वो अपना नहीं था.

पलकों पर अटकी उस बूंद में न सुख था, न दुख था....सामने एक पतली सी पगडंडी जाती दिख रही थी...

8 comments:

  1. aap ke ander ka jangal bahar ke jangal se ghana hai lekin wahan bhe roshne ek dam saf aa rahe hai

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  2. बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति,आभार.

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  3. अन्दर के जंगल में बीहड़ता भी है और सौन्दर्य भी।

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  4. बादल का एक टुकड़ा सर पर हाथ फिराते हुए निकला...वो जाता रहा मैं उसे देखती रही....वो मुस्कुराकर बोला...तेरा रास्ता सही है...ये सड़क न आंसू की ओर जाती है न मुस्कान की ओर यह जिंदगी की ओर जाती है...सुख और दुख जिंदगी में होते हैं जिंदगी नहीं होते....!

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  5. अलंकारों का सुंदर प्रयोग,बहुत सुंदर

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  6. गहन अर्थ लिए रचना...
    अपने भीतर के जंगल में खुद को खो देने का एहसास कितना सुखद होगा...
    ~सादर!!!

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  7. कभी हम जंगल में होते हैं..कभी जंगल हमारे अंदर होता है..

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