Thursday, April 18, 2013
Saturday, April 6, 2013
अजनबी चेहरों पर उमड़ने लगता है प्यार...
कन्धों के एकदम करीब आ जाता है
सड़कें ओढ़ लेती हैं
सुर्ख फूलों वाली सतरंगी चुनर
सुर्ख फूलों वाली सतरंगी चुनर
बच्चो की शरारतों
में लौट आती है मासूमियत
स्त्रियाँ बिना किसी त्यौहार के
करने लगी हैं भरपूर सिंगार
ट्रैफिक के शोर में भी
घुलने लगता है कोई राग
कोई मेज पर रख जाता है
फाइलों का नया ढेर
उन पर भी उगने लगती है
गुलाब के फूलों की खुशबू
पोपले मुंह वाली बुढ़िया
लगने लगती है
दुनिया की सबसे हसीन औरत
अजनबी चेहरों पर उमड़ने लगता है प्यार
किसी भी मौसम की डाल पर
उगने लगता है बसंत
दर्द सहमकर दूर से देखते हैं
कभी न गुम होने वाली मुस्कुराहटों को
दुनिया की तमाम सभ्यताएं पूरी असभ्यता से
सिखाती हैं उन्हें संवेदना के पाठ
कि देखो इतना मुस्कुराना भी ठीक नहीं
मानवीयता के खिलाफ है इस वक़्त
छेड़ना मोहब्बत का राग
कि देखो इतना मुस्कुराना भी ठीक नहीं
मानवीयता के खिलाफ है इस वक़्त
छेड़ना मोहब्बत का राग
वो थामते हैं एक दूसरे का हाथ
मुस्कुराते हैं और दोहराते हैं
खुद से किया हुआ वादा कि
सबसे मुश्किल वक़्त में हम बोयेंगे
इस धरती पर प्रेम के बीज
नफरत की जमीन में उगायेंगे प्यार
तोड़ेंगे दुःख की तमाम काराएं
और रचेंगे स्रष्टि के लिए
सबसे मीठा संगीत
चाहे तो कोई शासक
ठूंस दे उन्हें जेलों में फिर भी
झरता ही रहेगा आसमान से प्रेम
खिलखिलाता ही रहेगा बचपन
संगीनों के साये में
खिलते ही रहेंगे प्यार के फूल
कोई नहीं जान पायेगा कभी कि इस दुनिया को
सबसे नकारा लोगों ने बचाया हुआ है
नहीं दर्ज होगा इतिहास के किसी पन्ने पर
दुःख, पीड़ा, संत्रास के सबसे कठिन वक़्त में
किसके कारण धरती फूलों से भर उठी थी।।
Tuesday, April 2, 2013
एक जंगल में मैं थी, एक जंगल मुझमें था...
रास्ते नये नहीं थे. बस अरसे से रास्तों ने पुकारा नहीं था. चलने का जी चाहता तो था लेकिन रास्तों की पुकार का इंतजार था। तो चलने की ख्वाहिशों को और पैरों के भंवर को हथेलियों में समेटकर धूप और छाया के ठीक बीच में खुद को रख देते और वक्त की शाख से गिरते लम्हों को चुपचाप देखते रहते. ऐसे में कभी-कभी नींद सर पर हाथ फिराती और ख्वाब की कोई खिड़की धीरे से खुलती.
वो भी ऐसा ही एक दिन था. पंडित शिवकुमार शर्मा ने अपने संतूर से दुनिया भर के झरनों और नदियों को कमरे में इकट्ठा कर दिया था. धूप और छांव पक्की सहेलियों की तरह एक-दूसरे का हाथ थामे कुछ कह सुन रही थीं. तभी आसपास एक जंगल उग आया. जंगल की खुशबू में डूबने का आनंद समंदर की लहरों में सिमट जाने के आनंद जैसा ही पुरक कशिश होता है. उतना ही सघन आनंद जैसा तेज धूप में नंगे पांव दौड़ते हुए महबूब के पास जाने का होता है.
जंगलों में कितना आकर्षण होता है. मैं हमेशा सोचती हूँ कि जंगल ऐसा हो कि उससे बाहर जाने के सारे रास्ते गुम हो जाएं...रौशनी के गांव का रास्ता उस जंगल से होकर जाता हो लेकिन उस जंगल में गुम जाने के बाद रौशनी की दरकार भी न रहे. मैंने जंगल के हर पेड़ को गले लगाया, हर पत्ती को चूमा, जुगनुओं को हथेलियों पर लिया और जंगल की समूची खुशबू को दुपट्टे में बांध लिया...एक जंगल में मैं थी, एक जंगल मुझमें था. हथेलियों पर जुगनू थे और पलकों पर खुशबू। असीम शांत से उस मंजर में एक शोर घुला था. जंगल की खुशबू का शोर. गुलजार साब से शब्द उधार लूं तो बात पूरी हो कि खुशबू चुप ही नहीं हो रही थी. और खुशबू का यह शोर भीतर के कोलाहल को विराम दे रहा था. जिंदगी को उसके अर्थ आंसू और मुस्कान में नहीं मिलते इसलिए आंसू और मुस्कान की ओर जाने वाली सड़कों पर चलने से छूटना ही सही राह की और प्रस्थान है शायद.
अभी इसी उहापोह में उलझी थी कि तभी बादल का एक टुकड़ा सर पर हाथ फिराते हुए निकला...वो जाता रहा मैं उसे देखती रही....वो मुस्कुराकर बोला...तेरा रास्ता सही है...ये सड़क न आंसू की ओर जाती है न मुस्कान की ओर यह जिंदगी की ओर जाती है...सुख और दुख जिंदगी में होते हैं जिंदगी नहीं होते....उसे जाते हुए देखती रही...देखती रही...वो दूर किसी पहाड़ी पर जा टिका था...लेकिन पलकों में जो छुप के बैठा था वा कौन था?
धूप और छांव के बीच करवट लेते हुए अपने भीतर के जंगल की एक टहनी तोड़ती हूं...वो जो बीत रहा था वो सपना नहीं था, वो जो दूर गया वो अपना नहीं था.
पलकों पर अटकी उस बूंद में न सुख था, न दुख था....सामने एक पतली सी पगडंडी जाती दिख रही थी...