कुछ दोस्तों को हम आवाज़ के सबसे भीतर वाले दरीचों में छुपाकर रख देते हैं। इस भरोसे पे कि सालों की दूरियां भी उनके होने की तासीर को कम नहीं कर पाएंगी। ऐसे ही एक दोस्त हैं रवीश। हाँ, वही एनडीटीवी वाले. सोचती हूँ इस आदमी को चैन से जीना पसंद ही नहीं है। रवीश की रिपोर्ट देखते हुए भी अक्सर ऐसा ही लगता था। सारी दुनिया ऐसे काम करने को उत्सुक और प्रयासरत होती है जिससे आगे बढ़ा जाये, प्रशंशा मिले लेकिन ये जनाब तो जैसे जानबूझकर ऐसे विषय तलाशते है जिसे करने में मेहनत लगे चार गुना और टीआरपी मिले जीरो। इन्हें पंगे लेने में मजा आता है. वो टाई पहनकर स्टूडियो में बैठने की बजाय तपती दोपहर में खबर को तलाशना, लोगों से बातें करना ज्यादा पसंद करते है. फिर भी जब उन्हें स्टूडियो में बैठना होता है तो वो वहां भी कुछ अलग ही करते नजर आते हैं। रवीश उन मुठ्ठी भर पत्रकारों में से एक हैं जिन्होंने को खुद को खोये बगैर काम करना सीखा है और पत्रकारिता पर भरोसे को बचाया हुआ है.
'हम लोग' को वो नीरज की गलियों से घुमाते हुए दीप्ति नवल फारुख शेख का हाथ पकड़कर सूफी सगीत मदन गोपाल सिंह के जरिये सुफिज्म को समझने की कोशिश करते हैं। कार्यक्रम देखते हुए अक्सर उनके भीतर का पागलपन यानि कुछ बेहतर करने की जिद सी झलकती है। सचमुच इस दुनिया को पागलों ने ही बचाया हुआ है। ऐसे दोस्त होते हैं तो जिन्दगी की कड़वाहटें भी मीठी सी लगने लगती है। ये यकीन बचा रहता है कि कुछ लोग अपने अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं बावजूद इसके कि ये आसान नहीं है. ये जानते हुए कि जिस राह को वो चलने के लिए चुनते हैं उस पर चलने में हजार दिक्कतें हैं फिर भी वो चुनते हैं वही राह.
मैं कहती हूँ जान ही ले लो आप कितना सुन्दर प्रोग्राम था 'मौला मेरे मौला' भी 'लिसन अमाया' भी, 'नीरज' भी, वो फीकी सी आवाज में कहते हैं और उनकी रेटिंग के बारे में पता है तुम्हें? मैं कहती हूँ मैं जानती हूँ नयी लकीरें खींचने की जिद भी और दिक्कत भी।
शुक्रिया रवीश। रहे सलामत यूँ ही पागलपन!
'हम लोग' को वो नीरज की गलियों से घुमाते हुए दीप्ति नवल फारुख शेख का हाथ पकड़कर सूफी सगीत मदन गोपाल सिंह के जरिये सुफिज्म को समझने की कोशिश करते हैं। कार्यक्रम देखते हुए अक्सर उनके भीतर का पागलपन यानि कुछ बेहतर करने की जिद सी झलकती है। सचमुच इस दुनिया को पागलों ने ही बचाया हुआ है। ऐसे दोस्त होते हैं तो जिन्दगी की कड़वाहटें भी मीठी सी लगने लगती है। ये यकीन बचा रहता है कि कुछ लोग अपने अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं बावजूद इसके कि ये आसान नहीं है. ये जानते हुए कि जिस राह को वो चलने के लिए चुनते हैं उस पर चलने में हजार दिक्कतें हैं फिर भी वो चुनते हैं वही राह.
मैं कहती हूँ जान ही ले लो आप कितना सुन्दर प्रोग्राम था 'मौला मेरे मौला' भी 'लिसन अमाया' भी, 'नीरज' भी, वो फीकी सी आवाज में कहते हैं और उनकी रेटिंग के बारे में पता है तुम्हें? मैं कहती हूँ मैं जानती हूँ नयी लकीरें खींचने की जिद भी और दिक्कत भी।
शुक्रिया रवीश। रहे सलामत यूँ ही पागलपन!
उनका समर्पण दर्शकों को भी इतना ही प्रभावित करता है .... एक दोस्त की नज़र से उन्हें और जाना , आभार
ReplyDeleteसमझदारों की दुनिया में कुछ पागल भी जरुरी हैं !
ReplyDeleteआपसे सहमत हूँ, बच कर निकल जाने वाला मार्ग रवीश जी को आता ही नहीं, सामना करने का जीवट व्यक्तित्व।
ReplyDeleteभेड़ होना आसान है पर खुद का तय करना मुश्किल ...रविश जी अपनी राह खुद बनाते है ..और हमें उनका यही रूप भाता है
ReplyDeleteरवीश जैसे पत्रकार की शुरूआत ही वहाँ से होती है जो दूसरे पत्रकारों की प्रतिभा की अधिकतम सीमा समाप्त हो जाती है। मैं उनके कार्यक्रम की कायल हूँ हालांकि पिछले कुछ समय से कभी 2 लगता है, कहीं कहीं पर कुछ तल्ख़ सा अहसास करा जाते हैं। लेकिन इसमें मुझे लगता है, रवीशजी फिर भी अपने को काफी संभाल लेते हैं। उनका गुस्सा लाज़मी है, ये भी उनकी ईमानदार छवि से ही मेल खाता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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रंगों के पर्व होली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामंनाएँ!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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रंगों के पर्व होली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामंनाएँ!
Only news reporter whom I watch regularly, at Prime time.
ReplyDeleteये यकीन बचा रहता है कि कुछ लोग अपने अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं बावजूद इसके कि ये आसान नहीं है. ये जानते हुए कि जिस राह को वो चलने के लिए चुनते हैं उस पर चलने में हजार दिक्कतें हैं फिर भी वो चुनते हैं वही राह....sahi kaha pratibhaji.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeletelatest post हिन्दू आराध्यों की आलोचना
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