Sunday, February 24, 2013

और अब तय करने को दूरियां भी नहीं...


मैं अपने मौन से थोड़ी दूरी बना लेती हूँ। खिसक के जरा दूर जा बैठती हूँ। किसी कहकहे का हाथ पकडती हूँ, किसी अनकहे की ऊँगली थामती हूँ। लेकिन थोड़ी ही देर में मैं खुद को मौन के ही करीब पाती हूँ। मैंने दूर जाने के बारे में सोचा था या मैं सचमुच गयी थी। कई बार ऐसा लगता है कि हम जो करना चाहते हैं, दरअसल उस चाहने को ही जीने लगते हैं। हमें लगता है कि हम वही जी रहे हैं जो हम चाह रहे हैं। लेकिन चाहना जीना तो होता नहीं है। जीने के लिए जीना ही पड़ता है। बाकायदा। तो मैंने मौन से दूरी बनाई भी है या की सिर्फ ऐसा करने के बारे में सोचा है। शायद सोचा ही होगा तभी तो दूरी बनी नहीं। खुद पे हंसी आती है। चेतन और अचेतन सब आपस में उलझ गया है।

मैं अपनी ही जगह पर खड़ी हो जाती हूँ। सामने खूब सरे फूल हैं, पेड़ हैं, वो पेड़ जिन पर गर्मियों में लीचियां इस कदर लदी होती हैं कि पत्तियां नज़र नहीं आतीं। उन पेड़ों पर तोतों का खेल जारी है। बहुत सारी चिड़ियाँ हैं। कई दिनों बरसने के बाद आज मौसम खुला है सो पंछियों का खेल भी उठान पर है। बादलों की भी आवाजाही जारी है। ये सब देखते हुए मैं खुद को बता रही हूँ कि मैंने मौन से दूरी बना ली है , इस बार सच में। लेकिन जैसे ही पलट के देखती हूँ मेरा ये ख्याल मुझ पर ही हँसता है। मौन , मेरा मौन मेरे ठीक पीछे खड़ा था। मेरे दुपट्टे को पकडे हुए। तो क्या फिर से मैंने दूरी के बारे में सोचा था, फासला तय नहीं किया था। आजकल ऐसा बहुत होने लगा है। जो सोचती हूँ लगता है वही कर रही हूँ। हालाँकि जो करती हूँ उसके बारे में सोचने का वक़्त भी नहीं होता। मैं उससे आँख मिलाती हूँ। उसकी आंखों में मासूमियत है। वो समझता क्यों नहीं। मैं चुप रहते रहते थक गयी हूँ। बोलना चाहती हूँ।

मेरे पास भी तो एक भाषा है। तुम्हें तो आती है वो भाषा फिर तुम किस भाषा में बोलना चाहती हो, मौन की आँखों में सवाल उभरते हैं।

मैं हँसना चाहती हूँ , बेवजह बक बक करना चाहती हूँ, चिल्लाना चाहती हूँ, अनजाने रास्तों पे चलना चाहती हूँ, खो जाना चाहती हूँ। अपने गले से अपना नाम उतारकर फेंक देना चाहती हूँ , अपने चेहरे से अपना चेहरा पोंछ देना चाहती हूँ। मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ। तुम जाने दो न ...प्लीज़।
ठीक है। मौन सर झुका लेता है। वो दूरियां जो हम दोनों को तय करनी थीं और जिन्हें अब तक मैं अकेले तय कर रही थी अब वो भी तय करने लगा था। अब ये सोचना नहीं था, सचमुच होना था।

वही बादल हैं, वही मौसम, वही पंछी, वही संगीत लेकिन कहने को कुछ है ही नहीं। उसके जाने के बाद समझ में आया कि असल में मैं मौन में ही खिलती थी। उसके जाने के बाद आसपास शब्दों का जंगल है। बोलती रहती हूँ बेवजह कितना कुछ, हंसती रहती हूँ देर तक, रास्तों में भटकती रहती हूँ, मंजिलों से झगडती रहती हूँ लेकिन सब अर्थहीन।

बोलना कभी आया ही नहीं था मौन से भी दूरी बना ली। वो कहीं आस पास ही होगा शायद बार बार दरवाजे की ओर देखती हूँ दूर दूर तक कोई नहीं, मेरे पास शब्दों का एक ढेर है और अब तय करने को दूरियां भी नहीं।

6 comments:

  1. जिन्हें उदासियाँ अज़ीज़ होती हैं न ...उन्हें मौन से भी मुहब्बत होती है ...मौन का दूर जाना बर्दाश्त कैसे होगा ...
    प्रतिभा दी ...इस वक्त ..मेरे मन को सुकून देने वाला इस राईट अप से बेहतर कुछ और नहीं होगा ...शुक्रिया इसे मुझ तक पहुंचाने का ....

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  2. आजकल तो मौन भी मौन बैठा है, किससे बतियायें...

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  3. मौन से इतना भी क्या दिल लगाना

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  4. कभी कभी मौन भी लाभप्रद होता है,आभार.

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  5. अपनाऊं चंचलता या तोड़ूं मौन
    अवचेतन के निकट मेरे है कौन

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