रातें कभी खिंचकर इतनी लंबी हो जाती हैं कि दिन के लिए समय ही नहीं बचता. ऐसा ही कई बार दिनों के साथ भी होता है. वो भी ऐसी ही एक रात थी. देर रात हम दोनों न जाने किस बात पर उलझे थे. मैं जो कह रही थी, उसे खुद सुन नहीं रही थी. वो जो कह रहा था, उसे सुनने का मन नहीं था. कुल मिलाकर मैं बस कह रही थी. उस कहे में न जाने क्या-क्या उलझा था. अगर अपने ही कहे को सुन पाती तो शायद खुद से मुंह मोड़कर कबका चल दी होती. फिर मैंने खुद को चुप कर लिया. यह चुप्पी उसके लिए सौगात थी. ताकि वो बोल सके. और मैं कुछ भी सुनने से बच सकूं. तभी बारिश आ गई. तेज बारिश. अचानक. उसका कहना बीच में रह गया. मैंने उससे कहा रुको मैं अभी आती हूं. एक जरूरी काम है. उसे यह कयास लगाने के लिए छोडऩा कि जरूरी काम क्या हो सकता है मुझे अच्छा लगा. अब वो तब तक मेरे जरूरी काम के बारे में सोचेगा, जब तक मैं वापस नहीं आ जाऊंगी. और वो यह कभी नहीं जान पायेगा कि बारिश को देखना कितना जरूरी काम है मेरे लिए.
रात लगातार गहरा रही थी और बारिश भी. उसका इंतजार भी. मैं बालकनी से बारिश को देख रही थी. मानो हम दोनों बारिश और मैं अपनी अपनी हदों को समझते थे. वो बालकनी से दिख तो रही थी लेकिन मुझे भिगो नहीं सकती थी. मेरी भी हद तय थी कि हाथ बढ़ाकर बूंदों को छू सकती थी लेकिन भीग नहीं सकती थी. उधर उसका इंतजार जारी था, जिसका मुझे अब ख्याल भी नहीं था. मैं वहीं बैठ गई. बारिश शायद मुझ तक पहुंचना चाहती थी. हम दोनों के बीच बस $जरा सा फासला था. ये फासला कौन तय करेगा यह तय नहीं था. हम दोनों अपनी अपनी हदों में रहकर एक-दूसरे को लुभा रहे थे. लेकिन इस खेल में कुछ नियमों का टूटना लाजिम था. मेरा कोई तय नहीं होता कि किस वक्त क्या करूंगी. कभी आसमान पर जाकर चांद चुराने का हौसला होता है और कभी दो कदमों पर रखे सुख तक जाने की इच्छा नहीं होती. खैर, बारिश ने बदमाशी की और हवाओं को अपने पाले में कर लिया. अब वो हवा के झोंकों के साथ मेरे पैरों तक पहुंच गई थी. मैं वैसी ही बैठी रही. देर रात यह खेल चल रहा था जब सारा शहर गहरी नींद में जा चुका था. या जाने की तैयारी में था. मेरे पैर घुटने तक पूरे भीग चुके थे. और मैं उसकी अठखेलियां देख खुश हो रही थी. मुझे खामोश देख उसका हौसला बढ़ गया था. अब मैं कमर तक भीग चुकी थी. हवाओं पर सवार होकर वो मुझे भिगो रही थी. यह खेल चल रहा था. उसका इंतजार भी कि आधी रात को क्या जरूरी काम होगा. आखिर एक झोंका मेरे चेहरे पर आता है. बौछार का बड़ा सा झोंका. अब वो जीत चुकी थी. इस जीत में उसका आवेग बढ़ा और मेरा भीगना भी. आखिर मैंने हार मान ली. मैं हमेशा से हारना चाहती थी. किसी से. मैं चाहती थी कि कोई मेरे सोचे हुए को गलत साबित करे.
अजीब बात है कि लोग जीतना चाहते हैं और जीतने के लिए अपना पूरा दम लगा देते हैं और मैं हारना चाहती हूं. मैं कुछ भी नहीं करती, फिर भी जीत जाती हूं. आज यूं हारना अच्छा लगा. मैं उठी. बस दो कदम बढ़ाये और सर से पांव तक मैं पानी हो गई. बूंदों का सैलाब इस कदर तेज था कि मुझमें और बारिश में भेद करना मुश्किल हो गया था. मैं तब तक खुद को उसके हवाले किए रही, जब तक मैं कांपने न लगी. मेरी उंगलियां, हथेलियां देर तक भीगने के कारण फूलने लगी थीं. होंठ शायद नीले पड़ गये थे. मैंने खुद को देखा तो नहीं लेकिन शायद मैं सुंदर लग रही थी. मैंने अपना नाम पुकारा तो आवाज कांप रही थी. फिर मैंने उसका नाम पुकारा उसमें भी एक कंपन था. मानो हम एक सुर को विस्तार दे रहे हों. मुझे अपनी कांपती हुई आवाज अच्छी लगी. मैंने उस नाम को बार-बार पुकारा कांपती आवाज में. हालांकि मुझे पूरा यकीन है कि वो गहरी नींद में सोया होगा और उस तक कोई आवाज नहीं जा रही होगी. लेकिन शायद जा रही होगी. उसने जरूर करवट ली होगी. या कुछ बेचैनी महसूस की होगी.
मैं अपनी ही बात को काटने की जल्दी में रहती हूं. हालांकि मैं जानती हूं कि मुझे किस बात पर टिकना है. यह शायद इसलिए है कि बचपन से मैंने अकेले ही सारे खेल खेले हैं. लूडो में दूसरेखिलाड़ी की चाल भी खुद ही चलना. शतरंज में भी. लेकिन इन जीतों में कोई मजा नहीं होता था. बेईमानी करने की पूरी छूट होने के कारण बेईमान होने का सारा मजा जाता रहा. और जीत का भी. बड़े होने पर भी यह आदत गई नहीं. अपनी ही बात को काटना जैसे आदत बन गया. इसलिए जब कोई दूसरा सचमुच मेरी बात काटता और मुझे हराता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन ऐसा होता बहुत कम है और बिना किसी मशक्कत के मैं जीत जाती हूं.
मैं अपनी आवाज को लौटा लाती हूं उसकी नींद में खलल नहीं पडऩा चाहिए. हो सकता है वो कब्र में हो और करवट लेने की मनाही हो. हो सकता है वो सब्र में हो और मुस्कुराने की ड्यूटी पर मुस्तैद हो. ऐसे में उसे क्यों उलझन में डालना.
मैं बूंदों को पकडऩे के लिए दोनों हाथ ऊपर उठा देती हूं. बूंदे अब हथेलियों पर बैठने लगी हैं. मेरे दो कदम आगे बढऩे के बाद मैंने देखा कि बारिश का आवेग कुछ कम हुआ है. वो अब शांत होकर बरस रही है. हालांकि उसकी रफ्तार में कोई कमी नहीं. मैं अपने ऊपर उठे हाथों की ओर देखती हूं, वो हाथ अपने नहीं लगते. दुआ में उठे वो हाथ किसी नन्हे बच्चे के लगते हैं. बच्चे दुआ में क्या मांगते होंगे. चॉकलेट, टॉफी या मैथ्स का होने वाला टेस्ट जिसकी तैयारी न हो उसका कैंसिल हो जाना. कुछ बच्चे शायद अपनी खोई हुई मां मांगते हों...मैं डर जाती हूं. हाथ समेट लेती हूं. थरथर कांपते हुए खुद को समेटकर आधी रात को चाय बनाती हूं. भीगने के बाद चाय का स्वाद बेहतरीन लगता है. खासकर चाय के मग को ठंडे हाथों से घेरकर पकडऩा. यह हाथों को गर्माहट देने का तरीका है.
चाय पीते हुए लौटती हूं, तो उसे ढूंढती हूं जिसे अपना इंतजार पकड़ाकर गई थी. वो शायद अब तक ऊंघने लगा था. मैं उसे लैपटॉप पर खंगालती हूं. वो जा चुका है. उसका लिखा मैसेज चमक रहा है. तुम कन्फ्यूज हो. अपना कहा खुद सुनो पहले. जाने ये कैसी ताकीद है. अपना कहा सुनते-सुनते बोर हो चुकी हूं. मैं मुस्कुराती हूं. चाय और मैं. मैं खुद में लौट आती हूं. वो क्या कहना चाह रहा था. मैं क्या कह रही थी. हमारी क्या बात हो रही थी...कुछ भी याद नहीं आता. अगर वो जरूरी होता तो याद आता ही. गैरजरूरी बातों में सर क्यों खपाना.
सुबह उठती हूं तो बारिश अब भी अपना आंचल फैलाये है...मुझे देखते ही उसने गुड मॉर्निंग कहा...
मेरी फितरत ..लेबल ...और हार ...यह सब मेरे दिल के भी बहुत करीब है ..बारिश जारी है और आपका लिखा पढना एक नए अर्थ दे रहा है ...........
ReplyDeleteबहुत सुंदर, क्या बात है.. ये दो लाइनों ने तो बहुत प्रभावित किया।
ReplyDeleteअजीब बात है कि लोग जीतना चाहते हैं और जीतने के लिए अपना पूरा दम लगा देते हैं और मैं हारना चाहती हूं. मैं कुछ भी नहीं करती, फिर भी जीत जाती हूं
कभी कभी कोई सोच अपने सिरहाने आ खड़ी होती है और पूछती है - हम एक से हैं क्या ?
ReplyDeleteगैरजरूरी बातों में सर क्यों खपाना......
ReplyDelete( But Itz just too f****** essential !!!!) Isn't it ?
my language is offensive but I just cant help it..See the force ...can u ?
Know this that I love u little girl.. love urself ..u re the most beautiful gift of God..
I pity the beggar....Who hs just missed a pearl..!
(Sympathies to ..)
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ReplyDelete@Baabusha- दिल पे मत ले यार.
ReplyDeleteहार जीत के बीच प्रयास की स्थिति दयनीय है, न जाने किस करवट बैठता है निर्णय।
ReplyDeleteअबे पहले तो सारी भड़ास निकल ली आखिर मे लिख दिया गैर जरुरी बातों में सिर क्यों खपाना.खलिहर है क्या?लेकिन प्रतिभाजी बड़ा सुंदर लिखती है आप.सबकुछ खुद ही कह डाला .
ReplyDeleteबारिश के पानी के साथ..आपके आँखों से जो नहीं बहा...वो दर्द ....मुझे कहीं गहरे छू गया.सही है कभी कभार नियम तोड़ लेने चाहिए ..हमेशा दायरों में रह कर जीवन नहीं जिया जा सकता...अपना ख्याल रखियेगा!!
ReplyDeleteबाबुशा और ज्योति तुम दोनों को पीटने आना पड़ेगा. अच्छी खासी पोस्ट का पोस्ट मार्टम कर दिया.
ReplyDeleteएक ने ट्रेजेडी क्वीन बना दिया दूसरी को कॉमेडी आ रही है. पोस्ट को पोस्ट ही रहने दो दुष्टों...वरना मै लिखना बंद करने वाली हूँ. ज्यादा दिमाग लगाने की नहीं होती है...
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ReplyDelete:-) :-)
ReplyDeleteMy little doll
awesommmee........ye fitrat apne hisse me hi kyoon aati hai ....khair prkarti me akaaran kuch nahi hota ...soo apni firtat m bhi kuch raaz hi hain ...
ReplyDeletebaarish se mujhe bhi bahut pyaar hai...ussmai bhegne se aisa lagat hai jaise sare dukh dhul gaye hai...naya sa maehsooos hota hai....log mansoon mai udas hote hai ...aur mai khush....ajeeb hai...
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