Thursday, September 8, 2011

न, अब मुस्कुराते नहीं बनता...


जब गुस्से से नसें फटने लगती हैं तो मुस्कुराते नहीं बनता, जब मुस्कुराते नहीं बनता, तब बुरा समझते हैं लोग मुझे, जब वो बुरा समझते हैं, तब मुझे एक राहत महसूस होती है कि सहज हूं अब, जब राहत महसूस होती है सहज होने की तो पलटने लगती हूं ब्रेख्त, पाश, आजाद को, उन्हें पलटने के बाद देखने लगती हूं अपने देश को, राजनीति को, गले में पड़े 66 मनकों की माला को, गिनने लगती हूं होने वाले धमाकों को, यूं बिना किसी धमाके के भूख से मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है देश में, न अपने ही देश में जीने का अधिकार मांगने वालों की, फिर अचानक हंस पड़ती हूं. बहुत जोर से हंस पड़ती हूं इतनी तेज कि चाहती हूं विषाद के सारे शोर और रूदन पर डाल दूं अपनी खोखली और निर्जीव हंसी की चादर. समेट लूं सारा दर्द अपनी हंसी में और मुक्त कर सकूं धरती को पीड़ा से. लेकिन मैं कोई नीलकंठ नहीं, न अलादीन का चिराग है मेरे पास. मेरी हंसी लौट आती है निराश होकर मेरे पास.

10 comments:

  1. बेहतरीन पंक्तियां ..सीधे दिल ने कहा और आपने उकेर दिया ..बहुत खूब प्रतिभा जी

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  2. प्रतिभा...संजीदा..सीधे दिल में उतरता हुआ..

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  3. शांत !
    See I m there only..with u..
    शाम को बरिस्ता चलोगी ?
    चलो साथ में Mocha पियें ..फिर गोमती के किनारे बैठेंगे ..

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  4. बेहतरीन संजो रखने लायक है यह पंक्तियाँ संजो भी ली है मैंने अपने पास ..पढ़ कर ऐसा लगा कि यह ज़िन्दगी के हर विषाद को समझने का मौका दे रही है ..अच्छा है लिख कर कुछ तो फ्रस्टेशन कम होने का कम से कम एहसास तो होता है

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  5. आपका गुस्सा जायज़ है...

    नीरज

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  6. आक्रोश शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है।

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  7. मन की दशा का स्पष्ट चित्रण।

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  8. कई सोचों को एक जगह समाहित किया है आपने इन पक्तियों में...

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