Friday, June 24, 2011

रिल्के, मारीना और एक सिलसिला...


खतो-किताबत पुराना शगल रहा है. अगर कहूं कि खतों और डायरियों ने मुझे जिंदा रखा है तो अतिशयोक्ति न होगी. हमेशा लिखकर ही खुद को कुछ हद तक अभिव्यक्त कर पाई हूं. बोलकर कहने का सलीका तो आया ही नहीं. हर बात कहने के बाद लगता है ओह...कुछ रह गया. इसी शगल के चलते साहित्य में भी डायरियां, खत, आत्मकथाओं ने ज्यादा आकर्षित किया. सोचती हूं कि दो लोगों के बीच की बात क्या दो लोगों के बीच की ही बात भर होती है. नहीं, वो सृष्टि के दो टुकड़ों के बीच संवाद होता है. एक सिरे की दूसरे से जुडऩे की प्रक्रिया. एक व्यक्ति, एक समष्टि के दूसरे से संवाद की प्रक्रिया. इसीलिए अक्सर कहना सिर्फ कहना नहीं, रहना यानी रह जाना होता है. उस कहे हुए में कितने लोग अपना अक्स देखते हैं. अमृता आपा के लिखे से अगर उनकी डायरियां, खत और रसीदी टिकट निकाल दें तो...? हम कल्पना भी नहीं कर सकते ना?

ऐसे ही रूस की महान कवियत्री मारीना के बारे में सोचती हूं कि पत्र, डायरियों के बगैर मारीना को समझ पाना कितना मुश्किल होता. रूस का वह मुश्किल दौर. एक संवेदनशील जुझारू लड़की जो किस्मत या बदकिस्मती से कवि भी. पति फौज में. देश से निर्वासन, बिना किसी आर्थिक आधार के बच्चों की परवरिश, बीमारी, कविताओं पर पाबंदी...न जाने क्या-क्या. सोचती हूं कि इस स्त्री ने कैसे सहा सब कुछ. और इसके बावजूद उसकी दृढ़ सोच और भाषाई कमनीयता में कोई कमी नहीं आई. कड़वे जीवन का हलाहल अपने गले में उतारने के बावजूद उसका जीवन प्रेम की अभिलाषा में हमेशा नम रहा.

जीवन क्या होता है, जब यह समझ भी नहीं आई थी, तबसे मारीना का जीवन मेरे सामने खुला पड़ा था. मैं इस स्त्री के नाम का सजदा करती हूं. उसकी पसंद, नापसंद, जीने का ढंग, अभिव्यक्ति को लेकर उसकी साफगोई और अतिरेक, खुली समझ, वैचारिक स्पष्टता सब मुझे बचपन से आकर्षित करते हैं. ठीक उसी तरह जैसे रिल्के. बीए फस्र्ट ईयर में थी उन दिनों. सवालों की खेती लहलहा रही थी जेहन में. ऐसे में किसी ने रिल्के थमा दिये थे. बस जी, काम हो गया हमारा उसी दिन से. जिसने किताब दी थी उसकी अहसानमंद रहूंगी हमेशा. हर शब्द जैसे मन के भीतर चल रहे सवालों के अंधड़ को विराम देता था.

जानती हूं रिल्के के खतों को पढ़ते हुए मेरी ही तरह या हो सकता है इसे ज्यादा गहन अनुभूति से भी बहुतों ने महसूस किया होगा. ऐसा सघन वैचारिक तालमेल आसानी से कहां मिलता है. ऊपर से राजी दी ने अनुवाद भी ऐसा किया मानो सामने बैठकर रिल्के खुद बात कर रहे हों. इन पत्रों को खूब-खूब पढ़ा गया. हर पढऩे-लिखने वाले की प्रिय किताबों में रिल्के की कविताओं के साथ-साथ उनके पत्रों ने भी खास जगह बनाई.

रिल्के और मारीना एक ही वक्त में रचना प्रक्रिया में रत थे. रिल्के महान कवि थे और मारीना नवोदित. मारीना रिल्के से प्रेरित थी लेकिन रिल्के मारीना से नावाकिफ. मेरे लिए यह जानना बड़ा दिलचस्प था कि मारीना के भीतर रिल्के के प्रति आकर्षण था. लेकिन इतने छोटे से सच की दूसरी कडिय़ां नहीं मिल पा रही थीं. पिछले दिनों मारीना की जिंदगी की तमाम कडिय़ां मेरे हाथ लगीं. शरारती मन कहिये या इंसानी फितरत, सबसे पहले रिल्के और मारीना के बीच की कडिय़ों को जा पकड़ा मैंने. आखिर क्यों न होता दोनों मेरे प्रिय जो हैं. (यकीन मानिए ये लिखते हुए भी मैं मुस्कुरा रही हूं.) पता नहीं कौन, कब, कैसे कड़ी बन जाता है दो लोगों को जोडऩे की हमें नहीं पता होता. रिल्के और मारीना भी ऐसे ही जुड़ गये थे. उनके बीच संवाद की प्रक्रिया कब और किस तरह शुरू हुई इसका ब्योरा सोचती हूं साझा कर ही लिया जाए. बस, जरा सा इंतजार ...

8 comments:

  1. Jaan le lengi kisi di aap, Marina aur rilke :-)

    Kuch aur batiye na Rilke aur Marina ke relationship ke baare mein... Jigyasa badh rahi hai mere

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  2. जब वर्तमान भरमाता है, मैं भी पुरानी कविताओं में उतर जाता हूँ।

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  3. रोचक लेख....

    आगे का इंतज़ार है.....

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  4. इंतज़ार...? ठीक है, लेकिन बस ज़रा सा...

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  5. दो लोगों के बीच की बात सृष्टि के दो टुकडों के बीच संवाद होता है । एक सिरे की दूसरे से जुडने की प्रक्रिया ।
    सही लिखा है प्रतिभा जी ।

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  6. क्या कहूं.. वाकई बहुत बढिया। लेकिन
    इंतजार खत्म होने का इंतजार

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