तुम बुन रहे थे चक्रव्यूह,
मैं खुश थी कि
उस दौरान
मेरा ख्याल था तुम्हारे आसपास.
तुम रच रहे थे साजिशें
मैं खुश थी कि
ध्यान मेरी ही तरफ था तुम्हारा
उस सारे वक्त में.
तुम लगा रहे थे आरोप
मैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.
तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
मैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत.
और इतनी देर
दुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने...
मैं खुश थी कि
उस दौरान
मेरा ख्याल था तुम्हारे आसपास.
तुम रच रहे थे साजिशें
मैं खुश थी कि
ध्यान मेरी ही तरफ था तुम्हारा
उस सारे वक्त में.
तुम लगा रहे थे आरोप
मैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.
तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
मैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत.
और इतनी देर
दुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने...
और इतनी देर
ReplyDeleteदुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने..awsome
bhavnaao me doobi hui ek kavita. jaise ki mujhe pasand hai :)
ReplyDeleteबस, एक ही शब्द निकल रह है- अद्भुत।
ReplyDelete---------
सलमान से भी गये गुजरे...
नदी : एक चिंतन यात्रा।
क्या बात है प्रतिभा जी । स्त्रियां होती हैं ऐसी । हम ज्यादा दूर क्यों जाएं। अपने घर-परिवार में ही देख लें । घर में किसी भी अच्छाई के लिए हम स्वयं को जिम्मेदार ठहरा देते हैं लेकिन यदि कुछ गलत हो जाए तो उसके लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहरा देते हैं । महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण भी किसी से छिपा नहीं है । लेकिन इस सब के बावजूद भी महिलाएं निष्ठा के साथ अपने काम में लगी हुई है ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है ....कितनी शिद्दत से
ReplyDeleteसोचा होगा तुमने मेरे बारे में........वाह क्या बात है.......प्यार हो तो ऐसा हो.........
तुम लगा रहे थे आरोप
ReplyDeleteमैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.
aaj to waise hi main jaan hatheli pe le ke baithi hun..tum aur rahi sahi qasar nikaal lo ! Kyun na marr hi jaaun aaj pratibha ! :-)
Loved it gal !
वाकई...जो किया सब मेरे लिए...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...बधाई.
stabdh hun...adbhut kavita hai.... aurat se ishwar tak jaati hui lag rahi hai...
ReplyDeleteसुन्दर रचना , बधाई .
ReplyDeleteमेरी नयी पोस्ट
यह मन बहुत सबल है
तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
ReplyDeleteमैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत
बहुत सुंदर भाव। अच्छी कविता
तुम इकट्ठे कर रहे थे पत्थर
ReplyDeleteमैं खुश थी कि
इसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत
बहुत सुंदर भाव। अच्छी कविता
दुनिया थोड़ी और सँवर गयी, मेरी कीमत पर।
ReplyDeleteसुन्दर रचना, बधाई|
ReplyDeleteतुम लगा रहे थे आरोप
ReplyDeleteमैं खुश थी कि
कितनी शिद्दत से
सोचा होगा तुमने मेरे बारे में
जब तय किये होंगे आरोप.
khoobsurat panktiya..............
कितना व्यापक सत्य उगला है जिन्हें हर स्त्री जूझ रही है....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकल की बात और है मैं रहूँ ना रहूँ..
ReplyDeleteजितना ज़ी चाहे आज सता ले मुझको...
मैं खुश थी कि
ReplyDeleteइसी बहाने
इकट्ठी कर तो रहे थे अपनी ताकत...
अंतर्द्वंद का अनोखा विश्लेषण
और
अनूठी शैली
प्रभावशाली रचना .
"और इतनी देर
ReplyDeleteदुनिया के कारोबार में
नहीं डाला खलल तुमने"
ये सबसे अच्छी बात हुई..
@ Parul- Yahi to sari baat hai parul!
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