Tuesday, May 24, 2011

I love this IDIOT...

- निधि सक्सेना

सर्दी लग रही है...बहुत, मैंने सोचा भी नहीं था कि अपने देश में इतनी सर्दी होगी। आदत नहीं रह गई है ना! दोस्तोव्यस्की की बौड़म के प्रिंस से मेरी पहली मुलाकात ट्रेन में हुई। ठीक वैसे ही, जैसे पंद्रह साल की किसी लड़की से नायक की मुलाकात होनी भी चाहिए। नवंबर के अंत में सवेरे जब रोशनी नमी और कोहरे में डूबी हो, कुछ गज की दूरी पर भी किसी को पहचानना मुश्किल हो, रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे के डिब्बे की खिड़की से चेहरा सटाए 26-27 साल का घने सुनहरे बालों, छोटी-सी नुकीली दाढ़ी, धंसे गालों और बड़ी-बड़ी नीली, बींधती हुई आंखों वाला प्रिंस मिशिकन बैठा था। स्पष्ट था कि नवंबर की भीगी-भीगी रात का उसे पूरा मज़ा मिल चुका था और उसके तीखे नाक-नक्श नीले पड़े थे। हाथों में छोटी-सी पोटली झूल रही थी, जो उसका सर्वस्व थी। मेरा और दोस्तोव्यस्की का ये भोला-भोला नायक ट्रेन के उस डिब्बे में खास तरह के लोगों से घिरा बैठा था, जो दुनिया के हर बड़े आदमी और खासकर बड़ी औरतों से कैसे ना कैसे संबंध होने और उनके गुप्त राज़ जानने का दावा करते हैं और बड़ी अजीब मुद्रा में खाज मिटाते हुए हंसते हैं। हमारा प्रिंस इन लोगों को बड़े आराम से बता रहा था कि वह लगातार पांच साल से मिर्गी का इलाज करा रहा था और लगभग बौड़म रह चुका था। लगातार उन लोगों की हंसी के व्यंग्य भरे फव्वारे के बीच हमारा प्रिंस भी अपने बौड़मपने पर खुद भी मासूमियत से हंस पड़ा। 

हां, ये अजीब लग सकता है—खुद पर हंस पड़ना, वो भी तब, जब कई-कई लोग आपको घेरे आपकी चीराफाड़ी कर रहे हों, लेकिन यही तो मेरा नायक है। मेरा और दोस्तोव्यस्की का भी। साहित्य में कहते हैं न, `वह महान पात्र आज भी सामयिक है।‘ मैं कहती हूं—नहीं, वो इस सदी का लड़का नहीं है। हमारे समय में प्रिंस मिशिकन जैसे लड़के होते ही नही हैं। आपको अपने हर ओर दोस्तोव्यस्की के उपन्यास बौड़म के पात्र अपनी सारी चारित्रिक विशेषताओं के साथ मिल जाएंगे, बस—एक प्रिंस मिशिकन नहीं मिलेगा। मैंने बौड़म पढ़ा और प्रिंस को पसंद करने लगी, तब से हमेशा के लिए। पहली बार में तो मैं खुद समझ नहीं पाई कि क्यों मैं एक शर्मीले, कुछ-कुछ बचकाने, बेतरतीब और बीमार प्रिन्स पर इस कदर फ़िदा हो रही हूं, जबकि नायक तो एक मज़बूत किरदार होता है, जो सफल होता है। पता है जबकि, ये है जो, न जीतता है, न जीतना चहता है। ये क्यों मुझे लुभा रहा है? तब मैंने दुबारा बौड़म पढ़ी। प्रिंस मिशिकन को फिर से छूकर गुजरने के लिए। एक बच्चा है, जिसके कपड़ों का नाप बढ़ गया है और बच्चे-सी ही साफ़, साहसी नज़र है, जो न केवल लोगों को पहचान सकती है, अपनी साफ़गोई से उन्हें भेद भी सकती है। कभी वो मुझे एक ऐसा राजकुमार लगता, जो अपनी विनम्रता में संन्यास लिए है और लोग उसे प्यादा समझे बैठे हैं। कभी लगता ये क्यों खड़ा नही होता? इसको कभी भी, कोई भी मुंह पर मसखरा और बौड़म कहकर हंसने लगता है।

एक बेवकूफ सज्जन को धोखा देकर लोग कितने खुश हो जाते हैं। प्रिंस उनकी हंसी के लिए पात्र बनता है और उसका दया से भरा मन कहता है—`नहीं! इनके बारे में फैसला करने में इतनी बेरहमी न करूं। ईश्वर जानता है, इन कमज़ोर और शराबी दिलों में क्या-क्या बसा हुआ है।‘ संशय और असुरक्षा में जीते लोगों को सहने और माफ़ करने की क्षमता है प्रिंस के साहसी और सच्चे दिल में। उसमें अपनी एक चेतना है, जो किसी के, कुछ भी कहने से बेचैन हो कर डिगती नहीं है। उसमें रीढ की हड्डी है, लेकिन आजकल अनिवार्य सी हो गई सेल्फिशनेस और अभिमान नहीं। वह दूसरों की ख़ुशी के लिए खुद भी, खुद पर हंस सकता है। कितनी बड़ी बात है, न किसी अजनबी के सामने भी यूं खुद पे हंस पड़ना? मैं अपनी हंसी नहीं उड़ा सकती। मैं तो नाराज़ हो जाऊंगी। हमारे मन उतने निर्मल थोड़े ही हैं...हमारे दिलो में तो कई बार दूसरो की हंसी चुभा भी करती है। प्रिंस...जिसे हर आदमी बौड़म समझता है और धोखा तक देता है। तब हर बार लगता है—उफ़! ऐसे भोले आदमी को छलते शर्म नहीं आती। लोगों को प्रिंस प्रेम करता है, लेकिन दिल को वस्तु समझ हक़ नही जताता। प्रेमिका के सुख में उल्लसित और दुःख में व्यथा झेलता है। किसी की प्रेमिका छोड़ कर चली जाए, तब लोग दिल में नहीं, अहम पर चोट खाकर तिलमिलाते हैं और प्रिंस प्रेमिका की किसी और से शादी होने पर भी ख़ुशी में आंखें भिगो सकता है। वह समझ और विश्वास का साथी है, अहंकार का नहीं। उसकी सबसे ख़ास बात है उसका वो विश्वास कि औरत बेहया हो ही नहीं सकती और नस्तास्या जब गंभीर निराशा में फंसी, दूसरों की खिल्ली उड़ा रही है, तब वह नस्तास्या को डांट कर कहता है—"आप को शर्म तो नहीं आती ? क्या आप ऐसी ही हैं. जैसी आप अपने आप को जता रही हैं?" और नस्तास्या विनम्रता से लौट जाती है। ये एक पुकार थी गंभीर और असली पुकार, जो लोगों को जगा सकती है। बहुत दूर से बुला सकती है...।

ना, यहां औरत को पुरुष से सर्टिफिकेट की दरकार नहीं, उसके हयादार या बेहया होने के बारे में, लेकिन एक साथी, एक रिश्ते से औरत विश्वास और समझ की उम्मीद करती है। कितनी बड़ी बात है कि प्रिंस से पहली मुलाकात में ही वह सबकुछ मिलता है। भोला-भला प्रिंस, जो दौलत, प्रेम, रोमांस के बीच फंस गया है...एक ऐसे समाज में, जिसमें तमाम भौतिक चीज़ें और इंसान, एक साथ रहते हैं। यहां शक्की और ईर्ष्यालु लोगों का जमघट है, जो हर बुराई को ज्यादा से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और प्रिंस इन सब से ठीक उलट, किसी की छोटी सी अच्छाई पर भी खुश हो उसे इज्ज़त से स्वीकारता है। सोसायटी के मंझे हुए, व्यवहार कुशल खिलाड़ियों के बीच जब उसे अजूबे की तरह देखा जाता है, उनकी तमीज और तहजीब में उठने बैठने लायक नहीं। वहां, वही अकेला, एक मौलिक, एक असली इंसान है, जिसके चेहरे और दिल का आपसी सम्बन्ध अब तक कायम हैं। इस सोसायटी में प्रिंस की बेदखली देखकर लगता है—जाने इंसान को गरिमा और शालीनता उसका दिल सिखाता है या नाच सिखाने वाला मास्टर!

नहीं! वह ऐसा इंसान नहीं है, जो आपको ढेर सारे उत्साह और यौवन से भर दे। तूफ़ान और ताजगी दे, लेकिन आपको उसका साथ अच्छा लगेगा, क्योंकि उसमें एक सहज, सुन्दर सकारात्मकता है। शीतलता और प्यार है। प्यार बिना किसी नाटक और दिखावे के। वह धीरे से आता है और ख़ामोशी से आप में शामिल हो जाता है...मुस्कुराते हुए...शायद इसलिए ही मैं पहली बार में जान भी नहीं पाई कि ये मुझे क्यों अच्छा लग रहा है...प्रिंस को देखकर मुझे लगता है, जो जितना अविकसित होता है, वो उतना ही अधिक इंसान होता है। दुनिया की दुकानदारी में अपने फायदे के सौदे जो नहीं करता। रिश्तों में ताकत के गणित नहीं बिठाता। शायद प्रिंस की ये सहजता, ये निर्मलता इस ज़माने में किसी को नाटकीय लगे, लेकिन मुझे लगता है—बहुत पहले, कभी किसी जमाने में, शायद हर ओर, हर आदमी ऐसा ही हुआ करता होगा।
दोस्तोव्यस्की बरसों से प्रिंस मिशिकन जैसे अच्छे, भोले इंसान का चित्रण करना चाहते थे, जो सुंदर हो, आदर्श हो। उनके अनुसार, जो आदर्श है और उसका अभी तक पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। उन्हें भी लगा कि ऐसे पात्र के चित्रण से कठिन कोई दूसरा काम नहीं। उन्हें सही लगा था—ऐसे पात्र का मिल जाना कितना कठिन है, मुझसे पूछिए...मैं दस साल से ढूंढ रही हूं, तो ऐसा ही है हमारा प्रिंस...खुद के मखौल के बीच, खुद पर हंस देने वाला, दुनियादारी से एकदम अनजान, साफ बल्कि बौड़म ....

4 comments:

  1. सच हमारे अनुभव तक सीमित नहीं। बौडमों की तो अपनी पूरी दुनिया है, दुनियादारों से अदृश्य। दास्तान रोचक रही।

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